मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

अंधेरे के बाद उजाला है...

अंधेरे के बाद उजाला है इसलिए अंधेरे से घबराओ मत, निरंतर आगे बढ़ते चलो। यदि तुम्हारे आदर्श सही हैं, तुम्हारी सोच सही है तो तुम्हारे प्रयास एक न एक दिन जरूर सफल होंगे... इन लाइन को याद करते हुए हिना यास्मीन खान की आंखें भर आती हैं। वो स्वयं को संभलते हुए कहती हैं कि ये इनकी कुछ ऐसी पंक्तियां थीं जिन्हें अक्सर ये दोहराते रहते थे। मुझे क्या पता था कि एक दिन ये पंक्तियां मेरे जीवन को संबल प्रदान करने में मददगार बनेंगी। ये कहना शहीद पुलिस निरीक्षक स्वर्गीय श्री अब्दुल वहीद खान की पत्नी हिना यास्मीन खान का है। डेढ़ साल पहले नक्सली हमले में शहीद हुए श्री खान के जाने के बाद वो सिंगल पैरेंट्स की भूमिका का बखूबी निवर्हन कर रही हैं। श्रीमती हिना की तरह ही अन्य शहीद पुलिस जवानों की विधवाओं और उनके परिवारजनों को जहां अपने पति, बेटे और भाई की शहादत पर गर्व है वहीं अपने किसी अजीज की ताउम्र जुदाई का दंश समय-समय पर उन्हें बिलखने को मजबूर कर देता है।
शेखर झा
बच्चों के सामने रोना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि उनके सामने रोना यानि कि स्वयं को कमजोर साबित करना और उन्हें उनके पिता की याद दिलाना। इसलिए मैं अकेले में या जब बच्चे सो जाते हैं तो रो लिया करती हूं मगर बच्चों के सामने खुद के दुख का अंदाजा नहीं होने देती। छलकते आंसुओं के रूप में ये पीड़ा उन शहीद पुलिस जवानों की विधवाओं और परिवारजनों की आंखों में साफ झलक रही थी, जो अपने पति और परिवार के सदस्य को नक्सली हमले की घटनाओं में खो चुके हैं। इन शहीदों की शहादत पर जहां इनके परिवारवालों को गर्व है वहीं इन्हें खोने का दर्द घर के सदस्यों को इतना ज्यादा है जिसकी पूर्ति ताउम्र किसी भी रूप से नहीं की जा सकती है। वहीं शहीदों की पत्नियां स्वयं को संभलकर अपने और अपने बच्चों के लिए माता-पिता दोनों की भूमिका निभा रही हैं। बतौर सिंगल पैरेंट्स ये अपने शहीद पति और बच्चों के ख्वाब पूरे करने में अपनी ओर से निरंतर कोशिश करने में लगी हुई हैं।
क्वालिटी टाइम एहसास के रूप में
किसी भी शहीद की विधवा के लिए उसके पति की शहादत गर्व का अहसास तो कराती है मगर उनके खोने का गम चाहे कोई अधिकारी हो या कोई सिपाही उसके परिवारवालों के लिए बराबर ही होता है । ये कहना राजनांदगाव में शहीद पुलिस अधीक्षक स्वर्गीय विनोद कुमार चौबे की धर्मपत्नी रंजना चौबे का है। उल्लेखनीय है कि श्री चौबे वर्ष 2009 में जिले में ही ग्राम मदनवाड़ा और सीतागांव के पास नक्सल हमले की घटनाओं में शहीद हुए थे। श्रीमती चौबे कहती हैं कि आज वो मेरे साथ नहीं मगर उनके साथ बिताया हुआ क्वालिटी टाइम एक एहसास के रूप में मेरे साथ है। जब भी मैं स्वयं को कमजोर पाती हूं तो इनकी याद मुझे एक पॉजीटिव एनर्जी का एहसास दिलाती है। नक्सलवाद की समस्या के लिए लोगों के भय को जिम्मेदार मानते हुए श्रीमती चौबे कहती हैं कि आज भी ग्रामीण जनता में नक्सली लोगों के प्रति भय उन्हें उनकी मदद करने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए लोगों को भयमुक्त होकर पुलिस प्रशासन को नक्सलियों को खत्म करने में सहयोग देना चाहिए। जहां ग्रामीण लोग भय के चलते वहीं पढ़े-लिखे लोगों अपने पुराने सिंद्धातों पर टिके रहने की भावना के चलते ऐसे लोगों को सहयोग देते हैं। विनायक सेन के संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग मानवाधिकार की बात करके राष्ट्रद्रोह कर रहे हैं वो वास्तिवकता से काफी दूर हैं। यदि उन्हें जरूरतमंद लोगों के लिए कुछ करना है तो उन्हें जन-प्रतिनिधि बनकर जनता की मदद करना चाहिए। संविधान में रहकर कार्य करना चाहिए। स्वर्गीय चौबे के पुत्र सौमिल चौबे के लिए भी अपने पिता के कार्य के प्रति समर्पण के भव उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। इसके साथ ही उनकी लीडरशिप क्वालिटी का भी मैं अपने जीवन में अनुशरण करना चाहता हूं।
हाउसवाइफ से अधिकारी पद तक
जो कार्य पुरुष के होते हैं वो यदि कोई महिला करें तो मुश्किल तो आती ही है खासतौर पर जो महिला प्योर हाउसवाइफ हो। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। हाउसवाइफ से कलेक्ट्रेट में सहायक जिला अभीयोजन अधिकारी तक का सफर तय करना वाकई बहुत मुश्किल था। हिना यास्मीन खान कहती हैं कि अगर परिवार, सोसाइटी के सहयोग की बात करें तो सहानभूति देने वालों की कमी नहीं थी। किंतु ऐसी स्थिति से उबरकर दोबारा खुद को और बच्चों को संभलना मुझे ही था। हालांकि एक पुलिसवाले की बीवी होने के नाते इन्होंने मुझे हमेशा मेंटली रूप से इस चींज के लिए प्रिपेयर करके रखा था कि कल को यदि किसी मोड़ पर जब वो न होंगे तो मुझे ही सबकुछ संभलना होगा। जब ये शहीद हुए उस वक्त मेरे दोनों बेटे अमन और यासर खान बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इनकी दिली इच्छा थी कि दोनों बच्चे आईआईटी करके आईपीएस करें तो उनका एक ख्वाहिश तो पूरी हो गई है। बड़ा बेटा अमन इसरो में और छोटा यासर मुबंई आईआईटी से मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है।
भाई की काफी याद आती है
मदनवाड़ व सीतापुर के पास वर्ष 2009 में पुलिस नक्सली मुठभेड़ में ही शहीद हुए प्रधान पुलिस आरक्षक संजय यादव के भाई सुनील यादव बताते हैं कि राज्य सरकार की ओर से समय-समय पर मदद मिलती रहती है। भईया के शहीद होने के बाद मुझे कुछ दिनों तक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि भईया सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए हैं। भईया के गुजरने के बाद भी अपने बच्चे के साथ मायके मे रहने लगीं। जब भईया थे तो वो ही पूरे परिवार को चलाते थे। उनके गुजर जाने के बाद घर की स्थिति काफ ी नाजुक हो गई थी। उस वक्त मैंने और पापा ने नौकरी करना शुरु की। सुनील का कहना है कि नक्सलवाद के खात्मे के लिए के न्द्र व राज्य सरकार की तरफ से ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। ऐसा जब तक नहीं होगा तब तक न जानें कितने ही जवानों को अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ेगी। शहीद संजय की मां श्यामाबाई डबडबाती आंखों से कहती हैं कि संजय हमारे घर का चिराग था। बेटे के गुजरने के बाद तो जैसे घर से रौनक ही गायब हो गई। मेरा बेटा मरा नहीं है अपने देश के लिए शहीद हुआ है। वर्तमान समय के सभी नवयुवकों को भी देश की सुरक्षा में अपना योगदान देना चाहिए।
घर का पूरा मेरे कंधे पर
20 फरवरी 2000 को नारायणपुर के बकूलवाही में पदस्थ एडिशनल एसपी भास्कर दिवान की धर्मपत्नी रेखा भास्कर ने बताया कि इनके गुजरने के बाद मुझे काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इनके गुजरने के बाद घर की पूरी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आ गई। जब मेरे पति शहीद हुए तब मेरा बेटा तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था। वर्तमान समय में मेरा लड़का बीटीआई रायपुर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। पति के गुजरने के बाद घर व बच्चे की पढ़ाई के लिए मैंने नौकरी करना शुरु की। वर्तमान में मैं डिग्री गर्ल्स कॉलेज में प्रोफेसर पद पर पदरत हूं। कम उम्र में पिता का साया बच्चे के सिर से हट गया था, ऐसे में मैंने अपने बच्चे को माता-पिता दोनों का प्यार दिया। श्रीमती दीवान कहती हैं कि मैंने काफी अपने बच्चे को ये महसूस नहीं होने दिया कि उसके पापा नहीं है। उनके गुजरने के बाद मेरा जो कुछ था वो बस मेरा बेटा ही था। इनकी ख्वाहिश थी कि उनका बेटा पढ़-लिखकर खूब नाम कमाएं। ये हमेशा कहां करते थे कि सत्य भले ही परेशान करता हो, मगर हारता नहीं है। जो भी काम करें ईमानदारी और निष्ठा के साथ करें।







1 टिप्पणी:

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