दुनिया भर में आठ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जाता है. लेकिन बॉलीवुड के कई सितारे मानते हैं कि हर दिन महिलाओं का दिन होता है. निर्देशक और कोरियोग्राफ़र फ़राह ख़ान इस मौके पर महिलाओं को बधाई देने की ज़रूरत नहीं महसूस करतीं. वो कहती हैं, “मुझे इस दिन किसी महिला को ‘ऑल द बेस्ट’ कहने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि ‘विमेन आर द बेस्ट ‘ (महिलाएं सर्वश्रेष्ठ होती ही हैं). हर महिला अपने-आप में एक क़ामयाब औरत होती है चाहे वो घर में रह कर अपने घर ही क्यों न संभाल रही हों क्योंकि वो भी एक बहुत बड़ी उप्लब्धि है. फ़राह मानती है कि हर दिन महिला दिवस होता है क्योंकि आप एक भी दिन महिलाओं के बिना नहीं गुज़ार सकते, चाहे वो आप ख़ुद हों, आपकी मां हो, या फिर आपके घर की सफ़ाई करने वाली या आपका खाना बनाने वाली बाई. इसी तरह प्रीति ज़िंटा भी कहती हैं, “महिला दिवस सिर्फ़ एक ही दिन क्यों मनाया जाए, हर दिन हमारा दिन होता है.” औरतों के साथ छेड़खानी या फिर हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रीति मानती हैं कि ऐसे पुलिस कंट्रोल रुम होने चाहिए जिनमें ज़्यादा महिला पुलिसकर्मी हों ताकि महिलाएं उनसे आसानी से बात कर सकें. इमरान ख़ान को भी एक ही दिन महिला दिवस मनाने का विचार समझ नहीं आता है. साढ़े आठ साल के रिश्ते के बाद हाल ही में शादी के बंधन में बंधे इमरान कहते हैं, “अपने अनुभव के आधार पर मैं तो यही कहूंगा कि हर दिन महिलाओं का दिन होता है. पुरुषों के लिए तो अभी तक कोई दिन ही नहीं बना.” सामाजिक मुद्दों से जुड़ी जानी-मानी अभिनेत्री शबाना आज़मी मानती हैं कि पिछले दिनों में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं जो बहुत परेशानी की बात है. उनका कहना है, “ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी औरतों की इज़्ज़त करें और उन्हें वो हक़ दें जो आज़ादी दे सकती है.” अभिषेक बच्चन कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर होती हैं और वो हमारे प्यार और सम्मान की हक़दार हैं. माधुरी दीक्षित का कहना है, “आज जब महिलाएं चांद पर भी पहुंच गई हैं तो यही कहूंगी कि आप कोई सपना देख सकते हैं और उसे साकार कर सकते हैं.” आमिर ख़ान को महिला सशक्तिकरण की बातें करना बेफ़कूफ़ी लगती है. वो कहते हैं, “इसमें कहने वाली बात क्या है, महिलाएं भी पुरुषों की ही तरह स्वतंत्र, मज़बूत और अपने-आप में संपूर्ण होती हैं. मैं सभी इंसानों की समानता में यक़ीन रखता हूं.” निर्दशक मेघना गुलज़ार की सोच इस बारे में थोड़ी अलग है. वो कहती हैं, “मैं महिला दिवस जैसे विचारों को नहीं मानती, मैं मानती हूं कि हर इंसान बराबर होता है. हमें किसी एक दिन की ज़रूरत नहीं है....हर इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर दिन जश्न मनाना चाहिए.”
मंगलवार, 22 मार्च 2011
प्रेम कोई प्रायोजित कार्यक्रम नहीं...
प्रेम का इतिहास भी इस बात का गवाह है। बरसाने की छोरी ने नंद के लाला को देखा, नंद के लाला ने बरसाने की मोड़ी को देखा और हो गया प्यार, ऐतिहासिक प्यार। राधा की जगह तो रुक्मणी भी नहीं ले सकी। पंजाब के हीर-रांझा और मरुभूमि के लैला-मजनू, शीरी-फरहाद ने चौघड़िया देखकर शुभ मुहरत में प्रेम प्रसंग का शुभारंभ नहीं किया था। मीरा भी पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार कृष्ण दीवानी नहीं हुई थीं। प्रेम प्रसंग का घटित होना किसी भवन के लिए भूमिपूजन या किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान का शुभारंभ नहीं है।
प्रेम का संबंध अगर दिल से हो, तो वह दुनिया के सारे प्रतिबंधों, सारी वर्जनाओं को ध्वस्त कर देता है। प्रेम ही वह तूफान है जिसमें देश, धर्म, जाति, नस्ल, भाषा, परंपरा और संस्कृति के किनारे टूट जाते हैं। प्रेम में सिर्फ प्रेम ही प्रेम होता है। जैसे जल प्लावन के पश्चात चहुँदिशी जल ही जल होता है। प्रेम करने वाले सिर्फ मन देखते हैं, मन की भाषा समझते हैं, मन की भाषा बोलते हैं। प्रेम में केवल मन को देखने की भावना की अभिव्यक्ति इस पंक्ति में कितने सुंदर ढंग से की गई है, 'न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन।' प्रेम केवल मन देखता है, तभी तो राजरानी रजिया सुल्तान गुलाम याकूब को अपना दिलदार बना लेती है।
दूसरी ओर अरेंज मैरिज अर्थात प्रायोजित विवाह होते हैं। जिनमें परंपरावादी माता-पिता खुद सामने वालों का घर-बार देख लेते हैं। लेन-देन के सौदे हो जाते हैं। लड़के-लड़की तो एक-दूसरे को तभी देख पाते हैं, जब वे पति-पत्नी घोषित कर दिए जाते हैं। उनका विवाह हो जाता है। दरअसल पारंपरिक प्रायोजित विवाह लड़के-लड़की की कम, समधियों-समधनों की अपनी पसंद ज्यादा होती है। यह लड़के-लड़की का नहीं, माता-पिता की पसंद का विवाह होता है।
लड़के-लडकियों के लिए तो यह विवाह एक लॉटरी है, एक सट्टा है, एक जुआ है, अनुकूल पात्र मिल गया, तो ठीक वरना जिंदगी भर एक-दूसरे को तमाम नापसंदगी, ना इत्तफाकी के साथ कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते-झगड़ते किचकिच करते झेलो।
इन लतीफेनुमा वाक्यों को हटा दिया जाए कि 'प्रेम विवाहों में प्रेम पहले हो जाता है, विवाह बाद में, तो विवाह के बाद प्रेम करने की गुंजाइश ही नहीं रहती है।' प्रेम विवाह में पहले प्रेम होता है। विवाहोपरांत प्रेम परवान चढ़ता है। प्रेमी युगल के प्रेम विवाह को माता-पिता की नाक कट जाना समझते हैं। हमें हमारी संस्कृति पर खतरा नजर आता है। समाज व्यवस्था धसकती नजर आती है। इस हाय-तौबा पर कई बार तो ऐसा लगता है कि जो हम नहीं कर पाते हैं, वह दूसरों को करते देखते हैं, तो हमारी ईर्ष्या विरोध बनकर प्रकट होती है।
प्रेम विवाह असफल इसलिए होते हैं, क्योंकि समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखता है। माता-पिता अपनी उस संतान की उपेक्षा करते हैं, जिसने प्रेम विवाह किया है। पारंपरिक प्रायोजित विवाह इसलिए सफल (या चल जाते हैं) हो जाते हैं क्योंकि उसे सामाजिक मान्यता मिलती है। एक परिवार दूसरे परिवार के प्रति उत्तरदायित्व समझता है और अलग होने पर लोक निंदा का भय होता है। गरज यह कि प्रेम सहज है, इसे कैसे रोका जा सकता है?
मुसीबत न बन जाए मोबाइल...
सुबह के 10 बजकर 30 मिनट। बॉस के साथ मीटिंग। अचानक गर्लफ्रेंड का फोन आया और आपका मोबाइल बज उठता है। ऑफ का बटन दबाते-दबाते बॉस सहित बैठे तमाम सहकर्मियों की नजरें आपके चहरे पर आ चिपकती हैं। आप झेप जाते हैं।
आपने एक फनी मैसेज अपने ब्वॉयफ्रेंड के लिए लिखा है। तभी आपके सीनियर का मैसेज फ्लैश होता है 'कहाँ हो? रिपोर्ट करो।' आप जल्दी-जल्दी व हड़बड़ी में ब्वॉयफ्रेंड को तैयार मैसेज सीनियर को भेज देती हैं। क्लिक होने के बाद झटका लगता है कि ये क्या हो गया, लेकिन अब कोई फायदा नहीं। बटन दब चुका है।
ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन आप दो से ही पूरी बात समझ जाएँगे। तकनीक के बारे में कहा जाता है वह दोधारी तलवार की तेज धार होती है। अगर जरा-सी चूक हुई तो आप खुद भी घायल हो सकते हैं। यानी तकनीक के बिना जिया भी नहीं जा सकता और तकनीक के साथ जीने में असावधानी भी नहीं बरती जा सकती।
फिर अगर मामला प्रेमिका का हो तब तो यह स्थिति और भी असमंजस वाली जाती है। आप पूरी रात मोबाइल इसलिए नहीं ऑफ करते कि शायद उसका फोन आ जाए, मैसेज आ जाए और इस इंतजार में आपको ऐसे लोग पकड़ लेते हैं, जिनसे आप पिंड छुड़ाना चाहते हैं। आप बाथरूम में हैं और मोबाइल बाहर है।
मैसेज फ्लैश होता है और उन आँखों के सामने से गुजर जाता है, जिनसे नहीं गुजरना चाहिए। सारे दिन का प्रोग्राम गड्डमड्ड हो सकता है।
मतलब यह कि प्रेमिका का मोबाइल एक नहीं, कई तरह के खतरों का बटन है। जरा-सी भी असावधानी हुई कि दुर्घटना घटते देर नहीं लगेगी, मगर आज की तारीख में यह उपदेश नहीं दिया जा सकता या इसे रखने की क्या जरूरत? यह मोबाइल युग है। आम हो या खास, बाजार हो या कॉलेज, लड़का हो या लड़की, सबके हाथ में मोबाइल दिखेगा। मोबाइल आज महज एक-दूसरे से संपर्क करने का जरिया भर नहीं है।
पिछले कई सालों में देशों में हुई मोबाइल के इस्तेमाल संबंधी शोधों से यह बात सामने आई है कि मोबाइल के चलते बॉस की नजरों में सबसे जल्दी वे युवा चढ़ जाते हैं, जिनका अभी ताजा-ताजा अफेयर शुरू हुआ है या अपने आँधी-तूफान के दिनों में हैं।
हाल के वर्षों में पश्चिम के कई देशों में यह महसूस किया गया है कि युवा कर्मचारी और उनके मोबाइल की घंटियाँ ऑफिस के वर्क कल्चर को नुकसान पहुँचाती हैं। इसलिए कई पश्चिमी देशों में मोबाइल को लेकर ये नियम बना दिए गए हैं कि मेरा कर्मचारी जैसे ही कंपनी के परिसर में प्रवेश करेगा, वहाँ लगे जैमर से उसका मोबाइल सिग्नल पकड़ने के लायक नहीं बचेगा।
तमाम कंपनियाँ कर्मचारियों से ड्यूटी अवर में मोबाइल स्विच ऑफ करवा देती हैं। हमारे यहाँ भी कई कंपनियों ने यह शुरू कर दिया है, क्योंकि एक तो मोबाइल के मामले में हम चमत्कारिक दर से विकास कर रहे हैं, दूसरी बात यह है कि हम घंटी बजाने में कुछ ज्यादा ही बिंदास हैं।
अगर आप भी अपने ब्वॉयफ्रेंड को ऑफिस अवर में जब भी मन किया उसके मोबाइल को बजा देती हैं तो अब सावधान हो जाइए। इससे उसकी नौकरी भी जा सकती है, क्योंकि इससे :
* आपके ब्वॉयफ्रेंड की बॉस की नजरों में अच्छी इमेज नहीं रहती।
* उसे कामचोर और गप्पबाज भी समझा जा सकता है।
* इससे ऑफिस का वर्क कल्चर बिगड़ता है।
* बॉस के पास शिकायतें जाती हैं।
* ऑफिस में आपके ब्वॉयफ्रेंड का प्रभाव घटता है।
* इससे प्राइवेसी खत्म हो जाती है। खुद की भी और बगल वालों की भी।
* सहकर्मियों के बीच आप और आपका ब्वॉयफ्रेंड अनावश्यक चर्चा का विषय बन जाता है।
* इससे आपका ब्वॉयफ्रेंड अपने प्रोजेक्ट समय पर पूरे नहीं कर पाता। कर भी लिया तो क्वॉलिटी गिर जाती है।
अपने ही रंग में रंग ले मुझको..
निखिलेश काफी समय से दुविधा में था कि सोनिया को प्रपोज कैसे करे। वेलेंटाइन डे भी आकर चला गया लेकिन सोनिया से बात करते समय उसके हाथ-पैरों की कंपन दूर नहीं हुई थी। करियर में कई महत्वपूर्ण परीक्षाओं को चुटकियों में क्लियर कर चुका निखिलेश साल भार बाद भी प्यार की परीक्षा के लिए क्वालिफाय करने का साहस भी नहीं जुटा सका था।
प्रेम के इजहार के लिए होली का त्योहार सर्वाधिक माकूल। निखिलेश ने जब सोनिया को रंगा तो जीवन की मदमस्त होली में चूर उस पर से आज तक यह रंग नहीं उतरा।
त्योहार ही हैं जोकि व्यक्ति के आपसी मनमुटाव को दूर कर उन्हें फिर से नववर्ष में मधुर संबंध बनाने के लिए अगुआ करते हैं। भारतीय संस्कृति में यूँ तो हर दिन कोई न कोई त्योहार होता है। लेकिन होली, दशहरा, दिवाली आदि की बात ही कुछ और है।
मौजमस्ती के हिसाब से थोड़ा सकुचाते हुए जब निखिलेश ने मौका पाकर गुलाल सोनिया के गाल पर लगाया तो सोनिया दंग रह गई और तुरंत ही दिल में आने वाले भावों को अभिव्यक्त करने के लिए उसने पास भरी रखी रंग के पानी की बाल्टी डालकर उसे ऊपर से नीचे तक तरबतर कर दिया।
उसके बाद दोनों के बीच शुरू हुआ ईलु-ईलु निर्बाध जारी है। प्यार के रंग से सराबोर होली निखिलेश और सोनिया के लिए अजर-अमर हो गई।
फिल्म सौदागर में सुभाष घई ने काफी मशक्कत के बाद होली का त्योहार शामिल किया था। क्योंकि उन्हें राजबीर (राजकुमार) और वीरसिंह (दिलीप कुमार) की वर्षों से चली आ रही जानी दुश्मनी को खत्म कर दोस्ती में तब्दील करना था और दर्शकों ने इसे काफी सराहा भी था।
'राखी का इन्साफ' इंदौर में होगा....
याचिकाकर्ता ने अपने आरोपों के समर्थन में अदालत में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक पत्र पेश किया तथा राखी समेत रियलिटी शो से जुड़े चार लोगों पर मुकदमा चलाये जाने की गुहार की।
शहर के वकील किशन कुन्हारे ने बताया कि उनके मुवक्किल किशोर मरमट ने ‘राखी के इन्साफ’ में हुई अभद्र टिप्पणियों को लेकर अदालत में गत नवंबर में याचिका दायर की थी। साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय को भी इस कार्यक्रम की शिकायत की थी। उनकी शिकायत के संबंध में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक पत्र मिला है।
उनके मुताबिक इस पत्र में बताया गया है कि 'राखी का इन्साफ' के खिलाफ मिली शिकायतों का संज्ञान लेते हुए मंत्रालय इमैजिन टीवी चैनल को इस रियलिटी शो का प्रसारण रात 11 बजे के बाद करने और इसकी विषयवस्तु को तय मापदंडों के मुताबिक ढालने के निर्देश पहले ही दे चुका है।
कुन्हारे ने बताया कि प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट भूपेंद्र नकवाल की अदालत में याचिका पर सुनवाई के दौरान सूचना और प्रसारण मंत्रालय के इस पत्र को पेश किया गया तथा राखी समेत कार्यक्रम से जुड़े चार लोगों पर संबद्ध धाराओं में मुकदमा चलाये जाने की गुहार की गई।
याचिकाकर्ता का आरोप है कि राखी के धारावाहिक में अदालती प्रक्रिया की भौंडी नकल और अभद्र टिप्पणियाँ की गईं, जिससे ‘न्याय की देवी’ पर आस्था रखने वाले उन जैसे कई लोगों की भावनाएँ आहत हुईं। अदालत ने याचिका पर अगली सुनवाई के लिए 20 अप्रैल की तारीख तय की है।
शुक्रवार, 11 मार्च 2011
बिहार ने फिर दिखाई देश को राह
हर दिन ‘विमेन्स डे’……
गुरुवार, 10 मार्च 2011
अब भी डायन मानी जाती हैं महिलाएं
महिला दिवस का मौक़ा हो या महिला सशक्तीकरण का कोई उत्सव.भारत में महिलाओं पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है. लेकिन इन्हें पूरी तरह ख़त्म करने में शायद दशकों लगें. उत्तरप्रदेश के सोनभद्र ज़िले में महिलाओं को डायन कहकर शारीरिक यातानाएं दिए जाने का एक मामला फिर सामने आया है. हैरत ये है कि प्रशासन इन महिलाओं के आरोपों को सामान्य क़रार दे रहा है और मामले को रफ़ा-दफ़ा करने में जुटा है. उत्तरप्रदेश के सोनभद्र ज़िले के जामपानी गांव में सात मार्च को दो महिलाओं को 'डायन' कहकर उनकी लाठी-डंडों से पिटाई की गई. पहवा और जासो देवी नामक इन महिलाओं का कहना है कि उन्हें डायन और भूत कहते हुए गांव के एक व्यक्ति और उसकी पत्नी ने न सिर्फ मारा बल्कि उनके ‘ज़ख्मों पर मिर्च भी लगाई’. जासो देवी ने बीबीसी को बताया, "हम अपने घर की ओर लौट रहे थे कि रास्ते में हमें पकड़ लिया और एक कमरे में ले गए. वहां हमें बहुत मारा, यहां तक कि हमारे हाथ-पैर नीले हो गए और हमारे ज़ख्मों पर मिर्च लगाई. फिर हमें कमरे में बंद कर दिया." अपनी आपबीती सुनाते हुए पहवा देवी ने कहा, "जब वो हमें मार रहे थे तब हमें बचाने के लिए कोई नहीं आया. लोग खड़े होकर तमाशा देख रहे थे लेकिन बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया." इस इलाक़े में महिलाओं के अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्था वनवासी सेवा आश्रम से जुड़ी शोभा देवी ने बीबीसी को बताया, "यहां एक शिवगुरु चर्चा चलती है जिसमें लोग पूछते हैं कि किसी बीमारी की वजह क्या है". "उसमें एक युगल को बताया गया कि उनके घर के दक्षिण में जो रहता है उसने उनके बच्चे पर जादू-टोना कर दिया है. इसके बाद वो इन महिलाओं को पकड़ कर ले गए और उन्हें मारा." इस मामले की सूचना पाकर मौक़े पर पहुंचे एक स्थानीय वकील सूर्यमणि यादव ने बताया, "मैंने देखा कि कुछ लोगों ने इन औरतों को घेरकर बंधक बना रखा है. उन्हें काफ़ी चोटें आई थीं. "मार-पिटाई करने वालों का आरोप था कि इन औरतों ने उनके बच्चे पर जादू-टोना कर दिया है. हमने उन्हें समझाया और अंधविश्वास के लिए फटकार लगाई. फिर महिलाओं को अस्पताल ले जाया गया". इलाक़े के पुलिस अधीक्षक दीपक कुमार ने बीबीसी को बताया कि महिलाओं की शिकायत पर एक व्यक्ति को हिरासत में ले लिया गया है और उसके ख़िलाफ़ धारा 323, 504 और 506 के तहत मामला दर्ज किया गया है. हालांकि पुलिस अधीक्षक का कहना है कि यह एक समान्य मामला है और आदिवासी बहुल इस इलाके में महिलाओं को डायन कहा जाना आम है. उन्होंने कहा, "ये गोंड आदिवासियों का इलाक़ा है. यहां प्रचलित सामाजिक कुरीतियों के तहत महिलाओं पर अक्सर इस तरह के आरोप लगाए जाते हैं". "ये एक सामान्य मारपीट का मामला है. बाक़ी की कार्रवाई हम कोर्ट के आदेश से करेंगे." ऐसे में इन महिलाओं की मदद को पहुंची शोभा देवी का कहना है कि पुलिस की गंभीरता इस बात से ही ज़ाहिर होती है कि इलाक़े के थाना इंजार्च ने घटनास्थल का मुआएना तक नहीं किया है और मौक़े पर पहुंचे दो सिपाहियों के हवाले से मामला दर्ज किया गया है. उन्होंने बताया कि इस इलाक़े में पहले भी इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं और पुलिस को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए. उन्होंने कहा, "पुलिस ने एफआईआर में सिर्फ मारपीट का मामला दर्ज किया है. ये महिलाएं तो खुद लिख नहीं सकतीं लेकिन उन्होने पुलिस को साफ़तौर पर बताया है कि उन्हें बुरी तरह पीटा गया है और उनके ज़ख्मों पर मिर्चें आ दि लगाई गईं."
मुझे ‘मुन्नी बदनाम हुई’ प्यारा लगा: माधुरी
अस्सी और नब्बे के दशक की हिंदी फ़िल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को फ़िल्म ‘दबंग’ का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ प्यारा लगा.पिछले कुछ समय से बॉलीवुड के दो गाने-मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी-काफ़ी चर्चा में हैं. कुछ लोगों को ये गाने बहुत पसंद आ रहे हैं जबकि कुछ को नहीं. लेकिन बॉलीवुड की सबसे सफल अभिनेत्रियों में से एक और अपने उम्दा नृत्य के लिए मशहूर माधुरी कहती हैं कि उन्हें ये गाना ‘क्यूट’ लगा. “मैंने तीसमार ख़ाँ नहीं देखी है इसलिए ‘शीला की जवानी’ नहीं देख पाई, लेकिन ‘दबंग’ देखी है. हर किसी का देखने का नज़रिया और कोरियोग्राफ़ी करने का तरीका अलग-अलग होता है. मैं इस बारे में टिप्पणी नहीं कर सकती. हां, मुझे ‘मुन्नी’ अश्लील नहीं लगा. मुझे तो गाना बहुत प्यारा लगा.” माधुरी को फ़िल्म भी काफ़ी मनोरंजक फ़िल्म लगी. वो कहती हैं, “ये सीटी-वीटी बजाने वाली फ़िल्म है. सलमान ख़ान ने बहुत अच्छा काम किया है. मुझे अपनी फ़िल्म ‘राजा’ याद आ गई जो इसी तरह की थी.” माधुरी दीक्षित की गिनती हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अदाकारों और डांसर्स में होती है. ये पूछे जाने पर कि अपने नृत्य के लिए उन्हें सबसे बढ़िया ‘कॉम्पलिमेंट’ क्या मिला, उन्होंने बताया, “जब मैंने फ़िल्म ‘बेटा’ का गाना ‘धक-धक’ किया था, तो वहां मेरे कुछ दोस्त भी मौजूद थे. गाने के बाद मेरी एक दोस्त ने कहा कि तुमने कितना अच्छा डांस किया है. किसी ने कहा कि अनिल जी ने भी कितना अच्छा डांस किया है, तो उस दोस्त ने कहा कि, अरे अनिल जी भी थे क्या गाने में....”1984 में राजश्री की फ़िल्म ‘अबोध’ से अपना फ़िल्मी सफर शुरु करने वाली माधुरी एक मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रियन परिवार से हैं. इसलिए वो कहती हैं कि फ़िल्मों में आने का फ़ैसला उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. लेकिन वो मानती हैं कि जो व्यक्ति की किस्मत में होता है, उसके लिए रास्ते अपने आप निकल आते हैं. माधुरी ने बताया, “जब ‘अबोध’ की थी तब मैं फ़िल्मों के प्रति बहुत गंभीर नहीं थी. सोचा था कि एक फ़िल्म कर लेंगे क्योंकि मुझे पढ़ाई भी करनी थी, मैं साइंस की छात्रा थी. लेकिन जब शूटिंग करनी शुरु की तो मुझे बहुत अच्छा लगा. फिर एक के बाद एक फ़िल्में मिलती गई.” कुछ साल पहले शादी कर अमरीका में बस गईं माधुरी दीक्षित इन दिनों एक डांस रियेल्टी शो को जज कर रही हैं और इस सिलसिले में वो भारत में हैं.
करियर के शीर्ष पर होने के बावजूद शादी करने का फ़ैसला करने में माधुरी को कोई दिक्कत नहीं हुई.उन्होंने कहा, “ मुझे कभी ये ख़्याल नहीं आया कि मैं नम्बर वन हूं या करियर छोड़ रही हूं. हर इंसान का अपना सपना होता है कि आपको क्या-क्या चाहिए. मेरे लिए अभिनय व्यवसाय था और मेरे लिए यही ज़रूरी था कि मैं अपना काम अच्छी तरह से करूं. दूसरा, क्योंकि मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूं इसलिए मुझे भी अपने लिए ऐसा ही परिवार, घर, पति और बच्चे चाहिए थे. ये मेरा अपने लिए सपना था और जब मुझे सही व्यक्ति मिल गया, तो फिर फ़ैसला लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई.” अपने करियर में साठ से भी ज़्यादा फ़िल्में करने वाली माधुरी दीक्षित ने रोमांटिक, कॉमेडी और गंभीर, सभी तरह की फ़िल्में की हैं. उनकी आखिरी फ़िल्म 2007 में आई ‘आजा नचले’ थी. लेकिन वो चाहती हैं कि अगर अब वो ऐक्टिंग करें तो रोल उनकी छवि के अनुरुप हो. माधुरी कहती हैं, “अगर आज मैं फ़िल्म करूं तो ये कई बातों पर निर्भर करेगा. जो भी रोल हो वो मेरी छवि के अनुरुप हो और मेरे लिए लिखा गया हो. ज़ाहिर है वो छोटी उम्र का, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला रोल तो नहीं हो सकता लेकिन मैं हर समय गंभीर किस्म की फ़िल्में भी नहीं करना चाहती. चाहे वो गंभीर फ़िल्म हो या कॉमेडी, रोल ऐसा होना चाहिए जो मेरे लिए सही हो.”
मैंने ‘शीला की जवानी’ नहीं देखा है, लेकिन ‘दबंग’ देखी है. हर किसी का देखने का नज़रिया और कोरियोग्राफ़ी करने का तरीका अलग-अलग होता है. मैं इस बारे में टिप्पणी नहीं कर सकती. हां, मुझे ‘मुन्नी’ अश्लील नहीं लगा. मुझे तो गाना बहुत प्यारा लगा.
माधुरी दीक्षित
पैरंट्स ने बच्चों के लिए की मर्सी किलिंग की मांग
बिहार की चर्चा अब विकास के लिए होती है: चेतन भगत
मुन्नी और शीला ... खतरे में लड़कियां !
सोमवार, 7 मार्च 2011
दहेज़ मुक्त मिथिलाक उद्येश....
मिथिलाक नाम पर बहुत आन्दोलन चैल रहल अछि!
मुदा की मिथिला में दहेज़ प्रथाक लेल कुनू आन्दोलन चलत ?? यो मैथिल बंधूगन कहिया ई दहेजक महा जालसँ मिथिला मुक्त हेत... ??