रविवार, 12 जनवरी 2014

बदलाव की बयार

प्रीतीश नंदी

ऐसा कम ही होता है कि सार्वजनिक जीवन में इतने रोमांच के साथ नए साल की शुरुआत हो. बरसों बाद आखिर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच ही गए कि राजनीति इतनी महत्वपूर्ण है कि इसे ठगों, बदमाशों और दुष्टों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता. पांच राज्यों के चुनाव में लोग हजारों की संख्या में वोट देने आए. बदलाव की बयार को साफ महसूस किया जा सकता है.
rahul modi kejriwal
पिछली बार मैंने माहौल में ऐसी उत्तेजना तब देखी थी जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्रों ने सर्वशक्तिमान इमरजेंसी शासन को ध्वस्त कर दिया था. पर वह वक्त कुछ और था. तब अलग तरह का माहौल था. इंदिरा गांधी का शासन जितना निष्ठुर और कठोर था उसकी तुलना में यूपीए का शासन आधा भी नहीं है. हालांकि साफ नजर आने वाली अयोग्यता और बेलगाम भ्रष्टाचार ने इसे सबसे ज्यादा तिरस्कृत शासनों में शुमार कर दिया है. इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि अयोग्य लोगों के समूह ने मिलकर इतनी घोर अक्षमता दिखाई हो, लेकिन कहना होगा कि यूपीए गठबंधन का मैनेजमेंट नायाब रहा. सारे घोटालों, कांडों, अरबों रुपए की लूट के बाद भी यह सत्ता में बने रहने में कामयाब रहा. किंतु इस दौरान देश ने अपने श्रेष्ठतम अवसर गंवा दिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी छवि खराब हो गई. हालत इतनी खराब और निराशाजनक हो गई कि कुछ वक्त के लिए लगा कि हमने अगले प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी पर ही समझौता कर लिया है. किसी को तो गड़बड़ी दूर करनी ही होगी. जाहिर है यह मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बस की बात तो नहीं है. पिछले साल मोदी राष्ट्र की बड़ी उम्मीद के रूप में उभरकर आए. हालांकि इसके पीछे युवाओं तक पहुंचने की राजनीतिक रणनीति को बहुत ही कुशलता से अंजाम देने का हाथ अधिक था. युवा गुस्से में थे, हताश थे. वे पुराने ठगों से ऊब चुके थे. भूतकाल की बातों में उनकी कोई रुचि नहीं है. मौजूदा स्थिति उन्हें मंजूर नहीं है और वे उसे बदलना चाहते हैं. उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि बदलाव में ही उनका भविष्य है. उन्हें ऐसी सरकार नहीं चाहिए जो किसी साधु के यह कहने पर कि उसे सपने में सोना नजर आया है, सोने की खुदाई करने में लग जाए. मोदी ने उनकी इस बेचैनी और गुस्से को बड़ी खूबी से भुनाया. किंतु युवाओं की रुचि समाज को बांटने वाली राजनीति में नहीं है. उनके लिए जाति व समुदाय का कोई अर्थ नहीं है.मोदी उन्हें आकर्षित तो करते हैं पर उन्हें भाजपा के अयोध्या, राम मंदिर और हिंदू राष्ट्रवाद जैसे विवादास्पद मुद्दे नहीं चाहिए. उन्हें मोदी में एक ऐसा व्यक्ति नजर आया है जो इतिहास के बोझ से रहित नए भारत का निर्माण कर सकता है.यही वजह है कि वे मोदी का समर्थन कर रहे हैं. मोदी यह अच्छी तरह जानते हैं. वे जानते हैं कि युवाओं से उनका जो रिश्ता बन गया है उसमें वे उन्हें भागीदार नहीं बना सकते जो भारतीय जनता पार्टी को चलाते हैं. इसलिए सचिन की तरह वे भी अपनी बल्लेबाजी करते चले जा रहे हैं. पार्टी की उन्हें कोई परवाह नहीं है. जिस काम में वे माहिर हैं, उस पर वे डटे हुए हैं. लोग उनके सपनों पर भरोसा कर रहे हैं, क्योंकि उनके सामने यही एक सपना है. उनके समर्थकों की विशाल संख्या और बड़ी-बड़ी सभाएं सबकुछ बता रही हैं. उन्होंने लोगों की नब्ज़ पकड़ ली है, जो मनमोहन नहीं पकड़ पाए. राहुल इस सब में बहुत देर से आए. अब भी किसी को मालूम नहीं है कि क्या वाकई वे दिल से राजनीति में भाग ले रहे हैं. इसी के कारण तो मोदी को तेजी से अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिल गया. उन्हें इतनी देर तक मैदान खाली मिल गया कि वे वक्त से कुछ पहले ही लोकप्रियता के चरम पर पहुंच गए. मजे की बात तो यह है कि जो लोग मोदी का समर्थन कर रहे हैं उनके लिए राहुल ज्यादा अनुकूल हैं. राहुल की छवि उनकी कल्पना में ज्यादा फिट बैठती है. उनकी उम्र, उनकी पृष्ठभूमि, सबकुछ बिलकुल युवाओं के अनुकूल है, लेकिन वे जनता से नाता नहीं जोड़ पाए हैं और मजे की बात है कि मोदी की तरह वे भी अकेले हैं. राहुल ऐसा कुछ नहीं करते या कर पा रहे हैं, जो उनकी पार्टी में फर्क पैदा कर सके. अब मैदान में एक नया आदमी है-अरविंद केजरीवाल. उनकी आम आदमी पार्टी नई जायंट किलर है. केजरीवाल ने सारी सही चीजें की हैं. सबसे खास बात तो यह है कि उन्होंने खेल के नियम बदल दिए हैं. उन्होंने लोगों की दैनिक जीवन की समस्याओं के आसान समाधान दिए. नतीजा चकराने वाला है. उनके कट्टर समर्थकों को भी भरोसा नहीं था कि 'आप' सरकार बना लेगी. केजरीवाल को शपथ लेते देख भारत ने असंभव को साकार होते देखा. आदर्शवादियों का एक ढीला-ढाला सा समूह सत्ता में आ गया, जिसके पास न तो पैसा था और न बाहुबल. चुनाव जीतने के लिए उसने न पैसा बांटा और न शराब. वे सब जो कभी उनकी खिल्ली उड़ाते थे, अब उनके साथ आना चाहते हैं. उन्हें गरियाने, धमकाने और उनका अपमान करने वाली कांग्रेस (शीला दीक्षित ने तो उन्हें कोई चुनौती मानने से ही इनकार कर दिया था.) अब उन्हें समर्थन दे रही है. बदले में 'आप' ने कांग्रेस को खेल में फिर उतरने का मौका दिया है. हालांकि कांग्रेसजनों में इतनी सौजन्यता नहीं है कि वे केजरीवाल के शपथग्रहण समारोह में शामिल होते. राहुल ने जरूर स्वीकार किया है कि कांग्रेस को 'आप' से कई चीजें सीखनी चाहिए. हालांकि इससे उनकी पार्टी के ही लोगों में घबराहट फैल गई. 'आप' की जीत ने मोदी पर से फोकस हटा दिया. अब केजरीवाल नए हीरो हैं. मीडिया अब उनकी खुशामद में लग गया है. आम चुनाव में उनकी संभावनाओं की अटकलें लगा रहा है. केजरीवाल अपना प्रदर्शन दोहरा पाएंगे या नहीं इसे लेकर कई प्रकार की राय हैं, लेकिन बेशक उनकी सफलता नए साल की सबसे बड़ी खबर है. मोदी बनाम मनमोहन से हम अब मोदी बनाम राहुल पर आ गए हैं या शायद तीसरा मोर्चा आएगा? 'आप' ने सारी संभावनाएं खोल दी हैं. अब कुछ भी मुमकिन है. क्या मोदी आम चुनाव में 272 सीटों का जादुई अंक हासिल कर लेंगे? या भाजपा को विजयी गठबंधन बनाने के लिए किसी और को ढूंढऩा पड़ेगा? क्या 'आप' का जादू फिर चलेगा? क्या राहुल कांग्रेस को फिर मैदान में ला पाएंगे? सवाल, सवाल और सवाल. यदि सबकुछ विफल हो जाए तो कांग्रेस के पास एक आखिरी विकल्प है. राष्ट्रपति भवन में एक आदमी बैठा है जो एक झटके में पार्टी को एकजुट कर देगा. इससे भी बड़ी बात यह है कि सारे दलों में उसके दोस्त और सहयोगी हैं. पर सवाल है-क्या वे उन्हें फिर राजनीति में उतरने के लिए मना पाएंगे?

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