शनिवार, 31 दिसंबर 2011

नौकरी की समस्या नहीं...

जनसंचार में आज नौकरी की समस्या नहीं है। इस क्षेत्र में आज अपार सम्भावना है। विद्यार्थी को आज अपने शिक्षा को विस्तार करने कि आवश्यकता हैं। यह वक्तव्य कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति ड़ॉ सच्चिदानंद जोशी ने जनसंचार के प्रथम तथा तृतीय सेमेस्टर के विद्यार्थीयों को संबोधित करते हुए कहा। सर्वप्रथम कुलपति नें नये विद्यार्थियों का परिचय लेकर उनके शैक्षणिक पृष्टभूमि के बारे में जाना। अलग-अलग क्षेत्र के विद्यार्थियों को एक साथ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विद्यार्थियों को सुझाव दिया कि वें अपने अध्ययन पर अधिक समय दे साथ ही अपने आस-पास के वातावरण से भी कुछ सीखे। उन्होंने कहा कि संकल्पित होकर आगे बढ़े जिससे भविष्य के लिए मददगार साबित होगा। विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के जॉब साइट कि जानकारी दी। इन्हीं उत्साहवर्धन बोतों के साथ उन्होंने विधार्थियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उनके उज्जवल भविष्य की कामना की।

‘हिंसा किसी समस्या का हल नहीं होता‘ हिंसा और कानून पर परिचर्चा

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यलाय के जनसंचार विभाग द्वारा देश में बढ़ रहीं जनहिंसा और उससे पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए मंगलवार को एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। ाकार्यकम में मुख्य वक्ताओं में विधायक कुलदीप जुनेजा, वरिष्ट पत्रकार प्रकाश होता , युवा राजनेता श्रीकुमार मेनन उपस्थित थे।
जनहिंसा और कानून पर बोलते हुए श्री जुनेजा ने कहा कि आज के दौर में लोग तत्काल परिणाम चाहते है, लोग ये मानते है कि देश राज्य में जो भी गलत हो रहा है उन सब के पिछे नेताओं का हाथ है। वर्तमान परिपेक्क्ष का उदाहरण देते हुए यह भी कहा कि कुछ लोगों को वहम हो गया है कि हम कानून को जेब में रखते है या नेता हमारे गुलाम है, और कानून का उलघंन करना अपनी शान समझते है जो काफी शर्मशार घटना है, लोगो को कानून और मर्यादा का पालन करना चाहिए जिससे समाज में मिशाल पेश हो सके। श्री होता ने जनहिंसा के आरंभ काल को श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया, और शासन व प्रशासन को दोष देने के बजाय लोगों को खुद कानून का पालन करना चाहिए बताया। आज कल लोगों के पास आक्रोश निकालने के लिए साधन नहीं है, पूर्व में लोग अपने गुस्सा निकालने के लिए फुटबालॅ, हॉकी आदि आउटडोर गेम का उपयोग करते थे, पर आज इस वयस्ता भरे समय में लोग अपना क्रोध , गुस्सा आम लोग या राह चलते लोगों पर उतार देतेे है या फीर बात को बतंगर बना देने है। साथ ही यह भी कहा कि अगर किसी मसले को शांती से निपटा लिया जाए तो जनहिंसा की आवश्कता नहीं होगी। श्री मेनन ने अपने उदबोधन में कहा कि जनहिंसा का कारण एक तो लोग खुद होते है और कुछ शासन प्रशासन की खामियों के कारण भी जनआक्रोश फूटता है। समय रहते इस मामले का स्थाई हल नहीं निकाला गया तो भािवष्य में इसके परिणाम काफी दुखद हो सकती है। कर्यक्रम की अध्यक्ष्ता कर रहें डॉ शाहिद अली ने बतायाकी लोग अगर गांधी के बताए हुए मार्ग को अपना ले तो इस प्रकार की समस्या सामने ही नहीं आएगी। साथ ही यह भी बताया कि लोग जरा सी बात को बढा-चढा कर पेश करते र्है। कही का गुस्सा कहीं निकालते है आम भाषा में कहा जाए तो किसी घठना को लेकर राह चलते लोग हाथ साफ कर लेते है। वक्ताओं के अलावा पीसीसी के सचिव संजय पाठक, समाज सेवा के क्षेत्र से जुडे विनोद पिल्लै इलेक्ट्रानिक्स विभाग के विभागाध्यक्ष नरेंद्र त्रिपाठी ने भी अपने-अपने विचार रखें। कार्यक्रम में विवि के सभी छात्र-छात्राएं सभी विभागों के शिक्षक उपस्थित थे। अतं में आभार प्रदर्शन राजेद्र मोहंती व संचालन अवधेश मिश्रा ने किया।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

हवा का रुख़ बदलने वाले लोग...

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते,

वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते..

वंदना

वाकई कुछ लोगों के साथ रिश्ता ही ऐसा होता है कि उनके चले जाने के बाद भी उनसे रिश्ता टूटे नहीं टूटता. फि़ल्म और संगीत जगत की ऐसी ही कुछ हस्तियों को 2011 में लोगों ने नम आँखों से विदाई दी. कभी-कभी सोचकर थोड़ी हैरत होती है कि इन लोगों के साथ ज़ाती रिश्ता न होते हुए भी एक अटूट और रूहानी रिश्ता जुड़ जाता है. न जानते हुए भी लगता है कि ये शख़्स कुछ अपना सा है, जिनके हमेशा के लिए चले जाने पर वैसा ही दर्द होता है जितना किसी जानने वाले के जाने पर. शम्मी कपूर, सदाबहार देव आनंद और गज़़ल सम्राट जगजीत सिंह बहुत से लोगों के लिए ऐसी ही हस्तियाँ थीं. इनके चले जाने से जो खालीपन रह गया है उसे सैकड़ों सितारे मिल कर भी शायद न भर पाएँ. ये कलाकार नहीं नगीने थे. किसी ने ट्विटर पर इन्हें श्रद्वांजलि देते हुए सही कहा है- 'गॉड इज़ द रियल ज्वील थीफ़, ही स्टोल देव आनंद, शम्मी कपूर, जगजीत सिंह, एमएफ़ हुसैन.Ó यानी ऊपरवाले ने हमसे अनमोल नगीने चुरा लिए हैं.
अपने नियम ख़ुद गढ़े - इन हस्तियों के जाने से 20वीं सदी के एक स्वर्णिम युग से लोगों का नाता टूट गया है. आखऱि क्या वजह है कि इन लोगों की जगह भरना मुमकिन नहीं है. अपनी तमाम खूबियों और ख़ामियों को लिए ये कलाकार महज़ एक व्यक्ति नहीं बल्कि संस्था थे. इन्होंने अपने नियम ख़ुद गढ़े, अभिनय या गायन का अपना व्याकरण बनाया और लाखों-लाख दिलों पर राज किया. 1947 में जब आज़ाद भारत अपनी पहचान तलाश रहा था उसी दौरान 1948 में देव आनंद ने भी फि़ल्मी पर्दे पर दस्तक दी. देव आनंद ने अभिनय की अपनी शैली रची. अदायगी का वो अंदाज़, चेहरे की मुस्कुराहट, झुकी गर्दन, आँखों के एक कोने से वो प्यार भरी नजऱ, स्टाइलिश कपड़े....ये देव आनंद की पहचान थे और देखते ही देखते वो लोगों की दिल की धड़कन बन गए. वे दिलदार भी थे और दिलेर भी. लीक से हटकर विषयों को चुनने में वे कभी नहीं डरे. दिग्गज निर्देशकों और राज कपूर-दिलीप कुमार के साथ मिलकर देव आनंद ने हिंदी सिनेमा को वो मज़बूत आधार दिया जिसे आज बॉलीवुड कहा जाता है...हॉलीवुड वाले भी अब इस बॉलीवुड की सैर और 'क्रूज़Ó पर आते हैं...(भले ही उनकी नजऱ कला पर कम और यहाँ के बाज़ार पर ज़्यादा है). युवा पीढ़ी के लिए उनकी नई फि़ल्में प्रासंगिक नहीं रह गई थीं लेकिन उन्होंने इसकी परवाह कभी नहीं की. दूरदर्शिता वाले देव आनंद जैसे कलाकार ढूँढे से भी कम ही मिलते हैं...इसीलिए उनकी भरपाई मुश्किल है.
भारत के एल्विस प्रेस्ली - देव आनंद के बाद शम्मी कपूर जब आए तो भारत थोड़ा जवाँ हो चुका था. फि़ल्मों के आर्दशवादी नायक को शम्मी कपूर ने चुनौती दी. . उन्होंने उस समय के नायक की सूरत और सीरत बदल डाली. एल्विस प्रेस्ली जैसा अंदाज़, मदमस्त अदा, बग़ावती तेवर, आँखों में मस्ती और गीतों पर झूमने को ऐसा अंदाज़ कि उनके जादू से बचना मुश्किल हो जाए. शम्मी कपूर गेम चेंजर थे, लीक से हटकर चलने वाले. इसलिए उनकी भरपाई मुश्किल है. शम्मी कपूर और देव आनंद दोनों इसलिए याद रखे जाएँगे क्योंकि वे साहसी सितारे थे. इन्होंने अपने नियम ख़ुद बनाए, ये किसी के नक़्शे क़दम पर नहीं चले और ऐसे निशां छोड़ गए कि कोई चाहकर भी इनके नक्शे क़दम पर नहीं चल पाएगा. ये लोग 50 और 60 के ऐसे दौर का हिस्सा हैं जिसके बारे में आज की पीढ़ी ने किस्से ही सुने हैं. ये किस्से-कहानियाँ इन सितारों की आभा में और भी चार चाँद लगा देती हैं.
आवाज़ से जग जीता - देव और शम्मी कपूर की कामयाबी में एक समान धारा है और वो है इनकी फि़ल्मों का ख़ूबसूरत गीत-संगीत. गज़़ल गायक जगजीत सिंह शम्मी कपूर और देव आनंद के दौर के तो नहीं थे लेकिन उन्होंने भी अपने संगीत के ज़रिए लाखों लोगों के दिलों को वैसे ही छुआ जैसे शम्मी-देव ने अपने अभिनय से. इन दोनों फि़ल्मी सितारों की तरह जगजीत सिंह ने भी अपने नियम क़ायदों पर काम किया. रूमानियत, मासूमियत, मायूसी, इंतज़ार, प्यार..हमारे दिलों की कही-अनकही बातों को अपनी गज़़लों में पिरोया. ऐसा लगता था कि हमारे दिल का दर्द उनकी ज़बा से बयाँ हो रहा हो. उनकी हर गज़़ल अपनी लगती थी. आलोचना के बावजूद गज़़ल को संभ्रात लोगों के दायरे से निकालकर आमजन तक पहुँचाकर जगजीत सिंह ने वो काम किया जो पहले शायद ही किसी ने किया हो. किया भी तो इतनी मकबूलियत नहीं मिली.

जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया,

उम्र भर दोहराऊँगा ऐसी कहानी दे गय

चले जाने के बाद भी वो ऐसी गज़़लें पीछे छोड़ गए हैं जिन्हें दोहराकर हम आज भी दिल के एहसासों को बयां कर सकते हैं.
कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ के....
दुनिया को अलविदा कह चुके इन सब लोगों की बात करते-करते दिमाग़ में फिर वही सवाल आ रहा है जिसकी बात शुरु में की थी. क्यों इन हस्तियों के चले जाने के बाद निजी स्तर पर ऐसा खालीपन महसूस होता है मानो कोई अपना चला गया हो. दरअसल हम इन सितारों या कहें कि सितारों की छवि अपने दिलों में लेकर बड़े होते हैं. बचपन और जवानी के कितने ही किस्से इनसे जुड़े होते हैं. जो सपने ये पर्दे पर दिखाते हैं उम्र के किसी न किसी दौर में हम भी इन्हीं रूमानी सपनों को जीते हैं. जो गीत या गज़़ल ये सितारे गाते हैं उनके अल्फ़ाज़ हमें अपनी ही कहानी कहते हुए नजऱ आते हैं. फिर जीवन की आपाधापी में उम्र के साथ शायद इन्हें भूल भी जाते हैं.लेकिन मौत जब इन हरदिल अज़ीज़ सितारों को छीन ले जाती है तो मन में इनकी और इनसे जुड़ी निजी यादें फिर ताज़ा हो जाती हैं....अपनेपन का यही रिश्ता मन में खालीपन छोड़ जाता है. इनके चले जाने पर एहसास होता है कि क्यों कोई दूसरा शम्मी कपूर या देव आनंद या जगजीत सिंह नहीं हो सकता. हवा को भी रुख़ दिखाने वाली ये दिग्गज हस्तियाँ न सिफऱ् कला के मज़बूत स्तंभ हैं बल्कि हमारी सामूहिक स्मृतियों का अहम हिस्सा भी हैं. इनका जाना हमें भी कुछ देर के लिए अपने अतीत में ले जाता है- वो सपने जो पूरे हो गए और वो जो अधूरे रह गए. इनके जाने पर मन में कुछ ऐसा ही ख़्याल आता है......

'तुम चले जाओगो तो सोचेंगे

हमने क्या खोया हमने क्या पाया,

इप्टा की समीक्षा में कई अहम मसले पर हुई चर्चा

भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) के दूसरे दिन मंगलवार को वक्ताओं ने प्रस्तुत किए अपने विचार
शेखर झा
भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) के १३वें राष्ट्रीय सांस्कृतिक सम्मेलन पर सेक्टर-1 स्थित नेहरू सांस्कृतिक भवन के शरीफ अहमद मुक्ताकाश मंच पर वक्ताओं ने इप्टा को लेकर समीक्षा की। समीक्षा में विभिन्न प्रदेश के कलाकार उपस्थित थे। कार्यक्रम को इप्टा के संदर्भ में चर्चा करने के लिए वक्ताओं को कई भागों में बांट गया। कोई रंगमंच का समय से मुड़भेड़ को लेकर, तो कोई फिल्म एंड मीडिया के संदर्भ पर चर्चा कर रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता रमेश राजहंस ने की। इप्टा की पहली समीक्षा बैठक में नाट्य निदेशक प्रसन्ना, पटना इप्टा से जावेद अखतर, लखनऊ

इप्टा से राकेश कुमार, जुगल किशोर उपस्थित थे। वहीं दूसरी समीक्षा बैठक में आंध्र प्रदेश से के प्रताप रेड्डी, इंदौरा इप्टा से विनित कुमार, बिहार इप्टा से संजय सिन्हा शामिल थे। बैठक में सभी ने अपने अपने विचार व्यक्त किए। इस दौरान लोगों ने वक्ताओं से प्रश्न भी किए, जिसका वक्ताओं ने उत्तर भी दिया।
गांव में करना चाहिए नाटक - बैठक के दौरान नाट्य निदेशक प्रसन्ना ने कहा कि अभी भी गांव के लोग नाटक के भूखें हैं। कई साल हो जाते हैं, उनको नाटक देखने का अवसर नहीं मिल पाता। गांव में नाटक करने से लोगों की जिज्ञासा तो शांत होती है, साथ ही कलाकारों को भी गांव के लोगों से कुछ नया सीखने को मिलता है। वहीं जावेद अख्तर ने कहा कि नाटक प्रस्तुत करने के लिए कोई जगह तय नहीं की जाती है। घर के छत से लेकर अन्य जगहों पर नाटक प्रस्तुत की जा सकती है। उन्होंने खास कर बच्चों को केंद्रित करते हुए कहा कि रंगकर्मियों को बाल कलाकारों के साथ परफोरमेंस करना चाहिए। बाल कलाकार से बड़े-बड़े रंगकर्मियों को कुछ नया जानने का मौका मिलता है।
खुद का हो नेटवर्क - कार्यक्रम के दूसरे सत्र में वक्ताओं ने फिल्म और मीडिया विषय पर चर्चा की। इस बैठक में वक्ताओं ने माना कि इप्टा का खुद का नेटवर्क होना चाहिए, क्योंकि ये बड़ा थिएटर एसोसिएशन है। प्रताप रेड्डी ने कहा कि इप्टा के खुद का चैनल, वेबसाइट, स्नेह क्लब होने से काफी असर देखने को मिलेगा। वहीं संजय सिन्हा ने कहा कि समय-समय पर फिल्म मैकिंग पर वर्कशॉप होनी चाहिए। जिससे कलाकारों को अभिनय प्रस्तुत करने के साथ अपने अभिनय को क्रिएटिव करना भी आ जाएगा।

अभिनय किसी परिचय का मोहताज नहीं

बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष सीताराम सेन से शेखर झा की खास बातचीत :-
अभिनय को न ही कोई खरीद पाया है और न कभी खरीद पाएगा। वैसे भी अभिनय किसी परिचय का मोहताज नहीं होता है। ऐसा मानना बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष सीताराम सेन का है। वे इप्टा से १९७० से जुड़े हुए हैं। जब भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) का बिहार में पुनर्गठन हुआ था। शेखर झा से चर्चा के दौरान उन्होंने कहा कि बॉलीवुड में अब वह दौर खत्म हो चुका है, जब अभिनेता अपने अभिनय को लेकर पूरे देश के लोगों के जूवां पर छाए रहते थे। अभी जितने भी नए कलाकारों का प्रवेश हुआ है, उसमें से बहुत कम ही कलाकारों को अभिनय की
जानकारी है। बॉलीवुड में जितने भी पुराने कलाकारों का नाम जाना जाता है, वह सिर्फ और सिर्फ उनके अभिनय को लेकर ही लोग जानते हैं। सेन अपनी आंखों से भले देख नहीं सकते हैं, लेकिन किसी को कोई आभास तक नहीं होता है, कि वे देख नहीं सकते। उन्हें रंगकर्मी के साथ अच्छे गायक के नाम से देश में जाना जाता है। उनके द्वारा गाए गए गीतों को अधिकतर लोग पसंद करते हैं। सेन ने इप्टा के लिए लोकगीत, जनगीत, ट्रेडिशन सॉग व अन्य गाने गाए हैं। सेन का कहना है कि बात बॉलीवुड की करें, तो अभिनेता अपने अभिनय को बेचते हैं। नए कलाकार हर समय लोगों के जूवां पर छाए रहने के लिए क्या से क्या नहीं करते। बॉलीवुड के जितने भी पुराने कलाकर थे, वे अपने अच्छे अभिनय से लोगों में छाए रहते थे।
सरकार से कोई मदद नहीं - इप्टा दुनिया का सबसे बड़ा थिएटर एसोसिएशन है। जिसमें हरके कलाकारों को अभिनय के बारे में जानकारी दी जाती है, लेकिन सरकार की ओर से कोई मदद नहीं की जाती है। सेन ने कहा कि यंगस्टर्स को कला के क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए सरकार की ओर से न तो कोई मदद मिलती है और न कोई योजना शुरू है।
मनाते हैं बापू की जयंती - पूरे देश में ३० जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि मनाई जाती है। इससे भला इप्टा के कलाकार कैसे दूर रह सकते हैं। सीताराम ने बताया कि इप्टा के कलाकार पिछले कई सालों से गांधी मैदान पटना में एक जगह जुटकर 'हे राम बापू को बिहारीजन का सलाम, कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसमें देश के बड़े नेताओं से लेकर प्रसिद्ध अभिनेता भी शामिल होने आते हैं।

कई प्रांतों की संस्कृति की झलक दिखी रैली में

इप्टा के सचिव जितेन्द्र रघवंशी ने हरी झंडी दिखाकर रैली को किया रवाना, चौक-चौराहों पर हुआ स्वागत, पंथी नृत्य से रैली की शुरुआत
शेखर झा
भारतीय जन नाट्य संघ(इप्टा) के १३वां राष्ट्रीय महोत्सव से आम जनता को रूबरू कराने के लिए कलाकारों ने रैली निकाली। रैली में विभिन्न प्रदेशों से आए कलाकारों ने अपने-अपने प्रदेश के नृत्यों की प्रस्तुत दी। रैली को शाम ५ बजे आकाशगंगा परिसर से इप्टा के सचिव जितेन्द्र रघवंशी ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। रैली में सबसे आगे छत्तीसगढ़ इप्टा के लिटिल कलाकार थे, उसके बाद बिहार इप्टा, आंध्रप्रदेश प्रजा नाट्य मंडली, झाडखण्ड इप्टा, दिल्ली इप्टा, पंजाब इप्टा, राजस्थान इप्टा, उत्तर प्रदेश इप्टा व अन्य प्रदेशों से आए इप्टा के कलाकारों ने हिस्सा लिया। रैली के दौरान कोई अपने प्रदेश की संस्कृति को दर्शा रहे थे, तो कोई देश के भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ हल्ला बोल रहे थे। इस दौरान लोगों ने भी विभिन्न प्रदेशों के नृत्य का आनंद उठाया। रैली में अभिनेता अंजन श्रीवास्तव, प्रसन्ना, राजेन्द्र गुप्ता के अलावा इप्टा के अन्य प्रांतों के अध्यक्ष शामिल थे।
यहां से होकर गुजरे - रैली की शुरुआत आकाशगंगा परिसर से हुई। रैली जो जेपी चौक, २५मिलियन चौक, सेक्टर-2 चौक, सेक्टर-1 से होते हुए सांस्कृतिक भवन पहुंची। रैली के दौरान कई जगह अलग-अलग प्रदेश के कलाकारों ने अपने प्रदेश की नृत्य की प्रस्तुत दी। साथ ही फूलों की माला पहनाकर स्वागत किया।
विभिन्न प्रदेशों की नृत्य भी - छत्तीसगढ़ की पंथी नृत्य से रैली प्रारंभ हुई। उसके बाद आंध्रप्रदेश प्रजा नाट्य मंडली के कलाकारों ने पल्ले सुकूलू नृत्य, बिहार इप्टा के कलाकरों ने जोगीरा नृत्य, पंजाब इप्टा के कलाकारों ने भांगड़ा व गिद्धा नृत्य, आजमगढ़(उ.प्र.) के कलाकारों ने धोबिया नृत्य, आगरा इप्टा के कलाकारों ने इनकलाब के नारे लगाएं।
भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ हल्ला बोला - समाजसेवी अन्ना हजारे ने देश के भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों व अन्य लोगों के खिलाफ हल्ला बोल दिया है। रैली में शामिल होने के लिए राजस्थान से आए इप्टा के कलाकारों ने अपने प्रदेश की संस्कृति से लोगों को तो रूबरू किया ही, लेकिन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ हल्ला भी बोला। कलाकरों का कहना था कि यह सिर्फ अन्ना की लड़ाई नहीं है, बल्कि पूरे देश के आम जनता की लड़ाई है।

इप्टा के राष्ट्रीय महाकुंभ का हुआ अगाज

भारतीय जननाट्य संघ(इप्टा) के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट रणवीर सिंह ने झंडारोहण कर किया तीन दिवसीय महोत्सव का उद्घाटन
शेखर झा
भारतीय जननाट्य संघ(इप्टा) का सोमवार को सेक्टर-1 स्थित नेहरू सांस्कृतिक भवन के शरीफ अहमद मुक्ताकाशी रंगमंच पर १३वीं राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सव का उद्घाटन हुआ। कार्यक्रम की शुरुआत में इप्टा के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट रणवीर सिंह ने झंडारोहण करके किया। कार्यक्रम में प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक प्रसन्ना, अभिनेता अंजन श्रीवास्तव, अशोक भौमिक, रमेश राजहंस, राजेन्द्र गुप्ता, विनोद शुक्ल व विभिन्न प्रदेशों से आए रंगाकर्मियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति रही। महोत्सव के शुरुआत में छत्तीसगढ़ के लिटिल इप्टा और बिहार इप्टा के कलाकारों ने जनगीत प्रस्तुत किया। इस दौरान श्रोताओं ने उनका तालियों से साथ स्वागत किया। झंडारोहण के बाद रंगकर्मियों ने मार्च ऑन, मार्च ऑन, आईपीटीएल ऑन बोलकर कार्यक्रम की शुरुआत की। कार्यक्रम के दौरान सीनियर वाइस प्रेसिडेंट सिंह ने कहा कि इप्टा पूरी दुनिया का सबसे बड़ा थियेटर ऐसोशिएशन है। इतना बड़ा न तो थियेटर है और न आने वाले दिनों में होगा। इप्टा के झंडा के पास खड़े होने से गर्व होता है। उन्होंने विभिन्न प्रदेशों से आए कलाकारों को मिलकर काम करने की सलाह दी, साथ ही उन्होंने कलाकारों से अपने मक्सद हो हमेशा याद करके आगे बढऩे को कहा। प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक प्रसन्ना ने कलाकारों को अपने अभिनय से रूबरू कराते हुए कहा कि कलाकार किसी परिचय का महोताज नहीं होता है। वे अपने अभिनय से हर मुकाम को हासिल कर सकता है।
किया शरीफ को याद - उद्याटन सत्र के दौरान छत्तीसगढ़ के कलाकार शरीफ अहमद को सभी ने याद किया। पिछले महीने उनकी एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। छत्तीसगढ़ इप्टा के कई कलाकारों के आंखों से आंसू छलक रहे थे। कलाकार मणिमय मुखर्जी के आंसू थम नहीं रहे थे, क्योंकि कार्यक्रम को लेकर शरीफ पिछले एक महीने तक उनके साथ काम किया और कार्यक्रम में उनकी कमी महसूस हो रही है।
किया दो मिनट का मौन धारण- देश की रक्षा करने के लिए अपनी जान की आहूति देने वाले जावनों को विभिन्न प्रदेशों से आए कलाकारों ने कार्यक्रम में दो मिनट मौन रखकर श्रृद्धांजली अर्पित किया।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

लंदन में दिखेगा बिहारी प्रतिभा का जलवा


आगामी  माह में ब्रिटेन की राजधानी लंदन में पूरी दूनिया एक बार फ़िर बिहारी प्रतिभा का लोहा मानेगी। एक बार फ़िर पूरी दूनिया के लोग यह जान सकेंगे कि सामाजिकए आर्थिक और तकनीक रुप से पिछड़े बिहार में भी प्रतिभा कूट कूट कर भरी है। बताते चलें कि आगामी अगस्त माह में लंदन में रायल जियोग्राफ़िकल सोसायटी के तत्वावधान में विकासशील देशों में पानी समस्या विषयक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया है। इस आयोजन में भाग लेने के लिये बिहार के दो विशेषज्ञ डा अशोक कुमार घोष और डा नुपूर बोस मित्रा को आमंत्रित किया गया है।
यह पहला अवसर होगा जब इस स्तर के अंतरराष्ट्रीय स्तर के सेमिनार में बिहारी विशेषज्ञ न केवल अपनी बात बतौर वक्ता के रुप में रखेंगेए बल्कि वे पूरे सत्र की अध्यक्षता भी करेंगे। ये दोनों विशेषज्ञ वर्तमान में मगध विश्वविद्यालय के अनुग्रह नारायण सिंह कालेज में प्रोफ़ेसर हैं। इस संबंध में डा अशोक कुमार घोष ने बताया कि इस अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में अन्य बिहारी विशेषज्ञ भी भाग लेंगे। सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी में आर्द्रता प्रबंधन विषय पर बिहार के बांका जिले के चांदन प्रखंड में चलाई जा रही परियोजना की जानकारी दी जायेगी। इस विषय पर इन्डियन रुरल एसोसिएशन के कौशल कुमार शर्मा और नाबार्ड के अधिकारी नवीन कुमार राय अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। इसके अलावा नीदरलैंड के डेल्फ़ यूनिवर्सिटी आफ़ टेक्नोलाजी के छात्र अजय जी भट्ट गंगा और सोन नदी के किनारे बसे इलाकों में आर्सेनिक एवं अन्य जहरीले अवयवों एवं इसके निराकरण के संबंध अपनी बात रखेंगे। जबकि स्थानीय ए एन कालेज के छात्र राजीव कुमार इस अवसर पर बिहार के आर्सेनिक प्रभावित जिलों में पानी की कमी के बारे में सविस्तार जानकारी देंगे। जबकि वर्मी कल्चर की उपयोगिता के संबंध में अस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन शहर में स्थित ग्रीफ़िथ विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ एवं मूल रुप से बिहारी डा राजीव कुमार सिन्हा और पटना के ए एन कालेज के विशेष्ज्ञ डा अशोक कुमार घोष संयुक्त रुप से जानकारी देंगे।
सोजन्य : अपना बिहार 

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

अरुंधती राय : अन्ना की मांगें गांधीवादी नहीं हैं


अरुंधती राय का यह महत्वपूर्ण आलेख आज 22 अगस्त के हिन्दू में प्रकाशित हुआ है... 

















मैं अन्ना नहीं होना चाहूंगी : अरुंधती राय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

उनके तौर-तरीके भले ही गांधीवादी हों मगर उनकी मांगें निश्चित रूप से गांधीवादी नहीं हैं.

जो कुछ भी हम टी. वी. पर देख रहे हैं अगर वह सचमुच क्रान्ति है तो हाल फिलहाल यह सबसे शर्मनाक और समझ में न आने वाली क्रान्ति होगी. इस समय जन लोकपाल बिल के बारे में आपके जो भी सवाल हों उम्मीद है कि आपको ये जवाब मिलेंगे : किसी एक पर निशान लगा लीजिए - (अ) वन्दे मातरम, (ब) भारत माता की जय, (स) इंडिया इज अन्ना, अन्ना इज इंडिया, (द) जय हिंद.  

आप यह कह सकते हैं कि, बिलकुल अलग वजहों से और बिलकुल अलग तरीके से, माओवादियों और जन लोकपाल बिल में एक बात सामान्य है. वे दोनों ही भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. एक नीचे से ऊपर की ओर काम करते हुए, मुख्यतया सबसे गरीब लोगों से गठित आदिवासी सेना द्वारा छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष के जरिए, तो दूसरा ऊपर से नीचे की तरफ काम करते हुए ताजा-ताजा गढ़े गए एक संत के नेतृत्व में, अहिंसक गांधीवादी तरीके से जिसकी सेना में मुख्यतया शहरी और निश्चित रूप से बेहतर ज़िंदगी जी रहे लोग शामिल हैं. (इस दूसरे वाले में सरकार भी खुद को उखाड़ फेंके जाने के लिए हर संभव सहयोग करती है.)

अप्रैल 2011 में, अन्ना हजारे के पहले "आमरण अनशन" के कुछ दिनों बाद भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े घोटालों से, जिसने सरकार की साख को चूर-चूर कर दिया था, जनता का ध्यान हटाने के लिए सरकार ने टीम अन्ना को ("सिविल सोसायटी" ग्रुप ने यही ब्रांड नाम चुना है) नए भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून की ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होने का न्योता दिया. कुछ महीनों बाद ही इस कोशिश को धता बताते हुए उसने अपना खुद का विधेयक संसद में पेश कर दिया जिसमें इतनी कमियाँ थीं कि उसे गंभीरता से लिया ही नहीं जा सकता था. 

फिर अपने दूसरे "आमरण अनशन" के लिए तय तारीख 16 अगस्त की सुबह, अनशन शुरू करने या किसी भी तरह का अपराध करने के पहले ही अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. जन लोकपाल बिल के लिए किया जाने वाला संघर्ष अब विरोध करने के अधिकार के लिए संघर्ष और खुद लोकतंत्र के लिए संघर्ष से जुड़ गया. इस 'आजादी की दूसरी लड़ाई' के कुछ ही घंटों के भीतर अन्ना को रिहा कर दिया गया. उन्होंने होशियारी से जेल छोड़ने से इन्कार कर दिया, बतौर एक सम्मानित मेहमान तिहाड़ जेल में बने रहे और किसी सार्वजनिक स्थान पर अनशन करने के अधिकार की मांग करते हुए वहीं पर अपना अनशन शुरू कर दिया. तीन दिनों तक जबकि तमाम लोग और टी.वी. चैनलों की वैन बाहर जमी हुई थीं, टीम अन्ना के सदस्य उच्च सुरक्षा वाली इस जेल में अन्दर-बाहर डोलते रहे और देश भर के टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने के लिए उनके वीडियो सन्देश लेकर आते रहे. (यह सुविधा क्या किसी और को मिल सकती है?) इस बीच दिल्ली नगर निगम के 250 कर्मचारी, 15 ट्रक और 6 जे सी बी मशीनें कीचड़ युक्त रामलीला मैदान को सप्ताहांत के बड़े तमाशे के लिए तैयार करने में दिन रात लगे रहे. अब कीर्तन करती भीड़ और क्रेन पर लगे कैमरों के सामने, भारत के सबसे महंगे डाक्टरों की देख रेख में, बहुप्रतीक्षित अन्ना के आमरण अनशन का तीसरा दौर शुरू हो चुका है. टी.वी. उद्घोषकों ने हमें बताया कि "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है."    

उनके तौर-तरीके गांधीवादी हो सकते हैं मगर अन्ना हजारे की मांगें कतई गांधीवादी नहीं हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण के गांधी जी के विचारों के विपरीत जन लोकपाल बिल एक कठोर भ्रष्टाचार निरोधी क़ानून है जिसमें सावधानीपूर्वक चुने गए लोगों का एक दल हजारों कर्मचारियों वाली एक बहुत बड़ी नौकरशाही के माध्यम से प्रधानमंत्री, न्यायपालिका, संसद सदस्य, और सबसे निचले सरकारी अधिकारी तक यानी पूरी नौकरशाही पर नियंत्रण रखेगा. लोकपाल को जांच करने, निगरानी करने और अभियोजन की शक्तियां प्राप्त होंगी. इस तथ्य के अतिरिक्त कि उसके पास खुद की जेलें नहीं होंगी यह एक स्वतंत्र निजाम की तरह कार्य करेगा, उस मुटाए, गैरजिम्मेदार और भ्रष्ट निजाम के जवाब में जो हमारे पास पहले से ही है. एक की बजाए, बहुत थोड़े से लोगों द्वारा शासित दो व्यवस्थाएं.   

यह काम करेगी या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भ्रष्टाचार के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है? क्या भ्रष्टाचार सिर्फ एक कानूनी सवाल, वित्तीय अनियमितता या घूसखोरी का मामला है या एक बेहद असमान समाज में सामाजिक लेन-देन की व्यापकता है जिसमें सत्ता थोड़े से लोगों के हाथों में संकेंद्रित रहती है? मसलन शापिंग मालों के एक शहर की कल्पना करिए जिसकी सड़कों पर फेरी लगाकर सामान बेचना प्रतिबंधित हो. एक फेरी वाली, हल्के के गश्ती सिपाही और नगर पालिका वाले को एक छोटी सी रकम घूस में देती है ताकि वह क़ानून के खिलाफ उन लोगों को अपने सामान बेंच सके जिनकी हैसियत शापिंग मालों में खरीददारी करने की नहीं है. क्या यह बहुत बड़ी बात होगी? क्या भविष्य में उसे लोकपाल के प्रतिनिधियों को भी कुछ देना पड़ेगा? आम लोगों की समस्याओं के समाधान का रास्ता ढांचागत असमानता को दूर करने में है या एक और सत्ता केंद्र खड़ा कर देने में जिसके सामने लोगों को झुकना पड़े. 

अन्ना की क्रान्ति का मंच और नाच, आक्रामक राष्ट्रवाद और झंडे लहराना सबकुछ आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों, विश्व कप जीत के जुलूसों और परमाणु परीक्षण के जश्नों से उधार लिया हुआ है. वे हमें इशारा करते हैं कि अगर हमने अनशन का समर्थन नहीं किया तो हम 'सच्चे भारतीय' नहीं हैं. चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों ने तय कर लिया है कि देश भर में और कोई खबर दिखाए जाने लायक नहीं है. 

यहाँ अनशन का मतलब मणिपुर की सेना को केवल शक की बिना पर हत्या करने का अधिकार देने वाले क़ानून AFSPA के खिलाफ इरोम शर्मिला के अनशन से नहीं है जो दस साल तक चलता रहा (उन्हें अब जबरन भोजन दिया जा रहा है). अनशन का मतलब कोडनकुलम के दस हजार ग्रामीणों द्वारा परमाणु बिजली घर के खिलाफ किए जा रहे क्रमिक अनशन से भी नहीं है जो इस समय भी जारी है. 'जनता' का मतलब मणिपुर की जनता से नहीं है जो इरोम के अनशन का समर्थन करती है. वे हजारों लोग भी इसमें शामिल नहीं हैं जो जगतसिंहपुर या कलिंगनगर या नियमगिरि या बस्तर या जैतपुर में हथियारबंद पुलिसवालों और खनन माफियाओं से मुकाबला कर रहे हैं. 'जनता' से हमारा मतलब भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों और नर्मदा घाटी के बांधों के विस्थापितों से भी नहीं होता. अपनी जमीन के अधिग्रहण का प्रतिरोध कर रहे नोयडा या पुणे या हरियाणा या देश में कहीं के भी किसान 'जनता' नहीं हैं.     

'जनता' का मतलब सिर्फ उन दर्शकों से है जो 74 साल के उस बुजुर्गवार का तमाशा देखने जुटी हुई है जो धमकी दे रहे हैं कि वे भूखे मर जाएंगे यदि उनका जन लोकपाल बिल संसद में पेश करके पास नहीं किया जाता. वे दसियों हजार लोग 'जनता' हैं जिन्हें हमारे टी.वी. चैनलों ने करिश्माई ढंग से लाखों में गुणित कर दिया है, ठीक वैसे ही जैसे ईसा मसीह ने भूखों को भोजन कराने के लिए मछलियों और रोटी को कई गुना कर दिया था. "एक अरब लोगों की आवाज़" हमें बताया गया. "इंडिया इज अन्ना." 

वह सचमुच कौन हैं, यह नए संत, जनता की यह आवाज़? आश्चर्यजनक रूप से हमने उन्हें जरूरी मुद्दों पर कुछ भी बोलते हुए नहीं सुना है. अपने पड़ोस में किसानों की आत्महत्याओं के मामले पर या थोड़ा दूर आपरेशन ग्रीन हंट पर, सिंगूर, नंदीग्राम, लालगढ़ पर, पास्को, किसानों के आन्दोलन या सेज के अभिशाप पर, इनमें से किसी भी मुद्दे पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है. शायद मध्य भारत के वनों में सेना उतारने की सरकार की योजना पर भी वे कोई राय नहीं रखते. 

हालांकि वे राज ठाकरे के मराठी माणूस गैर-प्रान्तवासी द्वेष का समर्थन करते हैं और वे गुजरात के मुख्यमंत्री के विकास माडल की तारीफ़ भी कर चुके हैं जिन्होनें 2002 में मुस्लिमों की सामूहिक हत्याओं का इंतजाम किया था. (अन्ना ने लोगों के कड़े विरोध के बाद अपना वह बयान वापस ले लिया था मगर संभवतः अपनी वह सराहना नहीं.)

इतने हंगामे के बावजूद गंभीर पत्रकारों ने वह काम किया है जो पत्रकार किया करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अन्ना के पुराने रिश्तों की स्याह कहानी के बारे में अब हम जानते हैं. अन्ना के ग्राम समाज रालेगान सिद्धि का अध्ययन करने वाले मुकुल शर्मा से हमने सुना है कि पिछले 25 सालों से वहां ग्राम पंचायत या सहकारी समिति के चुनाव नहीं हुए हैं. 'हरिजनों' के प्रति अन्ना के रुख को हम जानते हैं : "महात्मा गांधी का विचार था कि हर गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक लुहार होने चाहिए और इसी तरह से और लोग भी. उन सभी को अपना काम अपनी भूमिका और अपने पेशे के हिसाब से करना चाहिए, इस तरह से हर गाँव आत्म-निर्भर हो जाएगा. रालेगान सिद्धि में हम यही तरीका आजमा रहे हैं." क्या यह आश्चर्यजनक है कि टीम अन्ना के सदस्य आरक्षण विरोधी (और योग्यता समर्थक) आन्दोलन यूथ फार इक्वेलिटी से भी जुड़े रहे हैं? इस अभियान की बागडोर उनलोगों के हाथ में है जो ऐसे भारी आर्थिक अनुदान पाने वाले गैर सरकारी संगठनों को चलाते हैं जिनके दानदाताओं में कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स भी शामिल हैं. टीम अन्ना के मुख्य सदस्यों में से अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा चलाए जाने वाले कबीर को पिछले तीन सालों में फोर्ड फाउंडेशन से 400000 डालर मिल चुके हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान के अंशदाताओं में ऎसी भारतीय कम्पनियां और संस्थान शामिल हैं जिनके पास अल्युमिनियम कारखाने हैं, जो बंदरगाह और सेज बनाते हैं, जिनके पास भू-संपदा के कारोबार हैं और जो करोड़ों करोड़ रूपए के वित्तीय साम्राज्य वाले राजनीतिकों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं. उनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार एवं अन्य अपराधों की जांच भी चल रही है. आखिर वे इतने उत्साह में क्यों हैं?   

याद रखिए कि विकीलीक्स द्वारा किए गए शर्मनाक खुलासों और एक के बाद दूसरे घोटालों के उजागर होने के समय ही जन लोकपाल बिल के अभियान ने भी जोर पकड़ा. इन घोटालों में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला भी था जिसमें बड़े कारपोरेशनों, वरिष्ठ पत्रकारों, सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस तथा भाजपा के नेताओं ने तमाम तरीके से साठ-गाँठ करके सरकारी खजाने का हजारों करोड़ रूपया चूस लिया. सालों में पहली बार पत्रकार और लाबीइंग करने वाले कलंकित हुए और ऐसा लगा कि कारपोरेट इंडिया के कुछ प्रमुख नायक जेल के सींखचों के पीछे होंगे. जनता के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन के लिए बिल्कुल सटीक समय. मगर क्या सचमुच?

ऐसे समय में जब राज्य अपने परम्परागत कर्तव्यों से पीछे हटता जा रहा है और निगम और गैर सरकारी संगठन सरकार के क्रिया कलापों को अपने हाथ में ले रहे हैं (जल एवं विद्युत् आपूर्ति, परिवहन, दूरसंचार, खनन, स्वास्थ्य, शिक्षा); ऐसे समय में जब कारपोरेट के स्वामित्व वाली मीडिया की डरावनी ताकत और पहुँच लोगों की कल्पना शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिश में लगी है; किसी को सोचना चाहिए कि ये संस्थान भी -- निगम, मीडिया और गैर सरकारी संगठन -- लोकपाल के अधिकार-क्षेत्र में शामिल किए जाने चाहिए. इसकी बजाए प्रस्तावित विधेयक उन्हें पूरी तरह से छोड़ देता है.     

अब औरों से ज्यादा तेज चिल्लाने से, ऐसे अभियान को चलाने से जिसके निशाने पर सिर्फ दुष्ट नेता और सरकारी भ्रष्टाचार ही हो, बड़ी चालाकी से उन्होंने खुद को फंदे से निकाल लिया है. इससे भी बदतर यह कि केवल सरकार को राक्षस बताकर उन्होंने अपने लिए एक सिंहासन का निर्माण कर लिया है, जिसपर बैठकर वे सार्वजनिक क्षेत्र से राज्य के और पीछे हटने और दूसरे दौर के सुधारों को लागू करने की मांग कर सकते हैं -- और अधिक निजीकरण, आधारभूत संरचना और भारत के प्राकृतिक संसाधनों तक और अधिक पहुँच. ज्यादा समय नहीं लगेगा जब कारपोरेट भ्रष्टाचार को कानूनी दर्जा देकर उसका नाम लाबीइंग शुल्क कर दिया जाएगा. 

क्या ऎसी नीतियों को मजबूत करने से जो उन्हें गरीब बनाती जा रही है और इस देश को गृह युद्ध की तरफ धकेल रही है, 20 रूपए प्रतिदिन पर गुजर कर रहे तिरासी करोड़ लोगों का वाकई कोई भला होगा? 

यह डरावना संकट भारत के प्रतिनिधिक लोकतंत्र के पूरी तरह से असफल होने की वजह से पैदा हुआ है. इसमें विधायिका का गठन अपराधियों और धनाढ्य राजनीतिकों से हो रहा है जो जनता की नुमाइन्द्गी करना बंद कर चुके हैं. इसमें एक भी ऐसा लोकतांत्रिक संस्थान नहीं है जो आम जनता के लिए सुगम हो. झंडे लहराए जाने से बेवकूफ मत बनिए. हम भारत को आधिपत्य के लिए एक ऐसे युद्ध में बंटते देख रहे हैं जो उतना ही घातक है जितना अफगानिस्तान के युद्ध नेताओं में छिड़ने वाली कोई जंग. बस यहाँ दांव पर बहुत कुछ है, बहुत कुछ.  
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('द हिन्दू' से साभार)

मंगलवार, 22 मार्च 2011

प्रेम कोई प्रायोजित कार्यक्रम नहीं...

दरअसल प्रेम कोई प्रायोजित कार्यक्रम नहीं है, जो चाहने से हो जाए और न चाहने से रुक जाए। प्रेम और स्टॉप वॉच में बहुत फर्क है। ग़ालिब ने सही कहा है कि प्रेम ऐसा आतिशी जज्बात है, जो सप्रयास लगता नहीं है और सप्रयास बुझता नहीं है। यह तो बस, होता है तो हो जाता है। नहीं होता है, तो नहीं होता है।

प्रेम का इतिहास भी इस बात का गवाह है। बरसाने की छोरी ने नंद के लाला को देखा, नंद के लाला ने बरसाने की मोड़ी को देखा और हो गया प्यार, ऐतिहासिक प्यार। राधा की जगह तो रुक्मणी भी नहीं ले सकी। पंजाब के हीर-रांझा और मरुभूमि के लैला-मजनू, शीरी-फरहाद ने चौघड़िया देखकर शुभ मुहरत में प्रेम प्रसंग का शुभारंभ नहीं किया था। मीरा भी पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार कृष्ण दीवानी नहीं हुई थीं। प्रेम प्रसंग का घटित होना किसी भवन के लिए भूमिपूजन या किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान का शुभारंभ नहीं है।

प्रेम का संबंध अगर दिल से हो, तो वह दुनिया के सारे प्रतिबंधों, सारी वर्जनाओं को ध्वस्त कर देता है। प्रेम ही वह तूफान है जिसमें देश, धर्म, जाति, नस्ल, भाषा, परंपरा और संस्कृति के किनारे टूट जाते हैं। प्रेम में सिर्फ प्रेम ही प्रेम होता है। जैसे जल प्लावन के पश्चात चहुँदिशी जल ही जल होता है। प्रेम करने वाले सिर्फ मन देखते हैं, मन की भाषा समझते हैं, मन की भाषा बोलते हैं। प्रेम में केवल मन को देखने की भावना की अभिव्यक्ति इस पंक्ति में कितने सुंदर ढंग से की गई है, 'न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन।' प्रेम केवल मन देखता है, तभी तो राजरानी रजिया सुल्तान गुलाम याकूब को अपना दिलदार बना लेती है।

दूसरी ओर अरेंज मैरिज अर्थात प्रायोजित विवाह होते हैं। जिनमें परंपरावादी माता-पिता खुद सामने वालों का घर-बार देख लेते हैं। लेन-देन के सौदे हो जाते हैं। लड़के-लड़की तो एक-दूसरे को तभी देख पाते हैं, जब वे पति-पत्नी घोषित कर दिए जाते हैं। उनका विवाह हो जाता है। दरअसल पारंपरिक प्रायोजित विवाह लड़के-लड़की की कम, समधियों-समधनों की अपनी पसंद ज्यादा होती है। यह लड़के-लड़की का नहीं, माता-पिता की पसंद का विवाह होता है।

लड़के-लडकियों के लिए तो यह विवाह एक लॉटरी है, एक सट्टा है, एक जुआ है, अनुकूल पात्र मिल गया, तो ठीक वरना जिंदगी भर एक-दूसरे को तमाम नापसंदगी, ना इत्तफाकी के साथ कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते-झगड़ते किचकिच करते झेलो।

इन लतीफेनुमा वाक्यों को हटा दिया जाए कि 'प्रेम विवाहों में प्रेम पहले हो जाता है, विवाह बाद में, तो विवाह के बाद प्रेम करने की गुंजाइश ही नहीं रहती है।' प्रेम विवाह में पहले प्रेम होता है। विवाहोपरांत प्रेम परवान चढ़ता है। प्रेमी युगल के प्रेम विवाह को माता-पिता की नाक कट जाना समझते हैं। हमें हमारी संस्कृति पर खतरा नजर आता है। समाज व्यवस्था धसकती नजर आती है। इस हाय-तौबा पर कई बार तो ऐसा लगता है कि जो हम नहीं कर पाते हैं, वह दूसरों को करते देखते हैं, तो हमारी ईर्ष्या विरोध बनकर प्रकट होती है।

प्रेम विवाह असफल इसलिए होते हैं, क्योंकि समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखता है। माता-पिता अपनी उस संतान की उपेक्षा करते हैं, जिसने प्रेम विवाह किया है। पारंपरिक प्रायोजित विवाह इसलिए सफल (या चल जाते हैं) हो जाते हैं क्योंकि उसे सामाजिक मान्यता मिलती है। एक परिवार दूसरे परिवार के प्रति उत्तरदायित्व समझता है और अलग होने पर लोक निंदा का भय होता है। गरज यह कि प्रेम सहज है, इसे कैसे रोका जा सकता है?

मुसीबत न बन जाए मोबाइल...


सुबह के 10 बजकर 30 मिनट। बॉस के साथ मीटिंग। अचानक गर्लफ्रेंड का फोन आया और आपका मोबाइल बज उठता है। ऑफ का बटन दबाते-दबाते बॉस सहित बैठे तमाम सहकर्मियों की नजरें आपके चहरे पर आ चिपकती हैं। आप झेप जाते हैं।

आपने एक फनी मैसेज अपने ब्वॉयफ्रेंड के लिए लिखा है। तभी आपके सीनियर का मैसेज फ्लैश होता है 'कहाँ हो? रिपोर्ट करो।' आप जल्दी-जल्दी व हड़बड़ी में ब्वॉयफ्रेंड को तैयार मैसेज सीनियर को भेज देती हैं। क्लिक होने के बाद झटका लगता है कि ये क्या हो गया, लेकिन अब कोई फायदा नहीं। बटन दब चुका है।

ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती है, लेकिन आप दो से ही पूरी बात समझ जाएँगे। तकनीक के बारे में कहा जाता है वह दोधारी तलवार की तेज धार होती है। अगर जरा-सी चूक हुई तो आप खुद भी घायल हो सकते हैं। यानी तकनीक के बिना जिया भी नहीं जा सकता और तकनीक के साथ जीने में असावधानी भी नहीं बरती जा सकती।

फिर अगर मामला प्रेमिका का हो तब तो यह स्थिति और भी असमंजस वाली जाती है। आप पूरी रात मोबाइल इसलिए नहीं ऑफ करते कि शायद उसका फोन आ जाए, मैसेज आ जाए और इस इंतजार में आपको ऐसे लोग पकड़ लेते हैं, जिनसे आप पिंड छुड़ाना चाहते हैं। आप बाथरूम में हैं और मोबाइल बाहर है।

मैसेज फ्लैश होता है और उन आँखों के सामने से गुजर जाता है, जिनसे नहीं गुजरना चाहिए। सारे दिन का प्रोग्राम गड्डमड्ड हो सकता है।

मतलब यह कि प्रेमिका का मोबाइल एक नहीं, कई तरह के खतरों का बटन है। जरा-सी भी असावधानी हुई कि दुर्घटना घटते देर नहीं लगेगी, मगर आज की तारीख में यह उपदेश नहीं दिया जा सकता या इसे रखने की क्या जरूरत? यह मोबाइल युग है। आम हो या खास, बाजार हो या कॉलेज, लड़का हो या लड़की, सबके हाथ में मोबाइल दिखेगा। मोबाइल आज महज एक-दूसरे से संपर्क करने का जरिया भर नहीं है।

पिछले कई सालों में देशों में हुई मोबाइल के इस्तेमाल संबंधी शोधों से यह बात सामने आई है कि मोबाइल के चलते बॉस की नजरों में सबसे जल्दी वे युवा चढ़ जाते हैं, जिनका अभी ताजा-ताजा अफेयर शुरू हुआ है या अपने आँधी-तूफान के दिनों में हैं।


हाल के वर्षों में पश्चिम के कई देशों में यह महसूस किया गया है कि युवा कर्मचारी और उनके मोबाइल की घंटियाँ ऑफिस के वर्क कल्चर को नुकसान पहुँचाती हैं। इसलिए कई पश्चिमी देशों में मोबाइल को लेकर ये नियम बना दिए गए हैं कि मेरा कर्मचारी जैसे ही कंपनी के परिसर में प्रवेश करेगा, वहाँ लगे जैमर से उसका मोबाइल सिग्नल पकड़ने के लायक नहीं बचेगा।

तमाम कंपनियाँ कर्मचारियों से ड्यूटी अवर में मोबाइल स्विच ऑफ करवा देती हैं। हमारे यहाँ भी कई कंपनियों ने यह शुरू कर दिया है, क्योंकि एक तो मोबाइल के मामले में हम चमत्कारिक दर से विकास कर रहे हैं, दूसरी बात यह है कि हम घंटी बजाने में कुछ ज्यादा ही बिंदास हैं।

अगर आप भी अपने ब्वॉयफ्रेंड को ऑफिस अवर में जब भी मन किया उसके मोबाइल को बजा देती हैं तो अब सावधान हो जाइए। इससे उसकी नौकरी भी जा सकती है, क्योंकि इससे :

* आपके ब्वॉयफ्रेंड की बॉस की नजरों में अच्छी इमेज नहीं रहती।
* उसे कामचोर और गप्पबाज भी समझा जा सकता है।
* इससे ऑफिस का वर्क कल्चर बिगड़ता है।
* बॉस के पास शिकायतें जाती हैं।
* ऑफिस में आपके ब्वॉयफ्रेंड का प्रभाव घटता है।
* इससे प्राइवेसी खत्म हो जाती है। खुद की भी और बगल वालों की भी।
* सहकर्मियों के बीच आप और आपका ब्वॉयफ्रेंड अनावश्यक चर्चा का विषय बन जाता है।
* इससे आपका ब्वॉयफ्रेंड अपने प्रोजेक्ट समय पर पूरे नहीं कर पाता। कर भी लिया तो क्वॉलिटी गिर जाती है।

अपने ही रंग में रंग ले मुझको..


निखिलेश काफी समय से दुविधा में था कि सोनिया को प्रपोज कैसे करे। वेलेंटाइन डे भी आकर चला गया लेकिन सोनिया से बात करते समय उसके हाथ-पैरों की कंपन दूर नहीं हुई थी। करियर में कई महत्वपूर्ण परीक्षाओं को चुटकियों में क्लियर कर चुका निखिलेश साल भार बाद भी प्यार की परीक्षा के लिए क्वालिफाय करने का साहस भी नहीं जुटा सका था।

प्रेम के इजहार के लिए होली का त्योहार सर्वाधिक माकूल। निखिलेश ने जब सोनिया को रंगा तो जीवन की मदमस्त होली में चूर उस पर से आज तक यह रंग नहीं उतरा।

त्योहार ही हैं जोकि व्यक्ति के आपसी मनमुटाव को दूर कर उन्हें फिर से नववर्ष में मधुर संबंध बनाने के लिए अगुआ करते हैं। भारतीय संस्कृति में यूँ तो हर दिन कोई न कोई त्योहार होता है। लेकिन होली, दशहरा, दिवाली आदि की बात ही कुछ और है।

मौजमस्ती के हिसाब से थोड़ा सकुचाते हुए जब निखिलेश ने मौका पाकर गुलाल सोनिया के गाल पर लगाया तो सोनिया दंग रह गई और तुरंत ही दिल में आने वाले भावों को अभिव्यक्त करने के लिए उसने पास भरी रखी रंग के पानी की बाल्टी डालकर उसे ऊपर से नीचे तक तरबतर कर दिया।

उसके बाद दोनों के ‍बीच शुरू हुआ ईलु-ईलु निर्बाध जारी है। प्यार के रंग से सराबोर होली निखिलेश और सोनिया के लिए अजर-अमर हो गई।

फिल्म सौदागर में सुभाष घई ने काफी मशक्कत के बाद होली का त्योहार शामिल किया था। क्योंकि उन्हें राजबीर (राजकुमार) और वीरसिंह (दिलीप कुमार) की वर्षों से चली आ रही जानी दुश्मनी को खत्म कर दोस्ती में तब्दील करना था और दर्शकों ने इसे काफी सराहा भी था।

'राखी का इन्साफ' इंदौर में होगा....

"ड्रामा क्वीन" के नाम से मशहूर राखी सावंत की मेजबानी वाले रियलिटी टीवी शो ‘राखी का इन्साफ’ में पिछले साल कथित अभद्र टिप्पणियों के खिलाफ दायर याचिका पर एक स्थानीय अदालत में जारी सुनवाई में सोमवार को नया मोड़ आ गया।

याचिकाकर्ता ने अपने आरोपों के समर्थन में अदालत में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक पत्र पेश किया तथा राखी समेत रियलिटी शो से जुड़े चार लोगों पर मुकदमा चलाये जाने की गुहार की।

शहर के वकील किशन कुन्हारे ने बताया कि उनके मुवक्किल किशोर मरमट ने ‘राखी के इन्साफ’ में हुई अभद्र टिप्पणियों को लेकर अदालत में गत नवंबर में याचिका दायर की थी। साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय को भी इस कार्यक्रम की शिकायत की थी। उनकी शिकायत के संबंध में सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक पत्र मिला है।

उनके मुताबिक इस पत्र में बताया गया है कि 'राखी का इन्साफ' के खिलाफ मिली शिकायतों का संज्ञान लेते हुए मंत्रालय इमैजिन टीवी चैनल को इस रियलिटी शो का प्रसारण रात 11 बजे के बाद करने और इसकी विषयवस्तु को तय मापदंडों के मुताबिक ढालने के निर्देश पहले ही दे चुका है।

कुन्हारे ने बताया कि प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट भूपेंद्र नकवाल की अदालत में याचिका पर सुनवाई के दौरान सूचना और प्रसारण मंत्रालय के इस पत्र को पेश किया गया तथा राखी समेत कार्यक्रम से जुड़े चार लोगों पर संबद्ध धाराओं में मुकदमा चलाये जाने की गुहार की गई।

याचिकाकर्ता का आरोप है कि राखी के धारावाहिक में अदालती प्रक्रिया की भौंडी नकल और अभद्र टिप्पणियाँ की गईं, जिससे ‘न्याय की देवी’ पर आस्था रखने वाले उन जैसे कई लोगों की भावनाएँ आहत हुईं। अदालत ने याचिका पर अगली सुनवाई के लिए 20 अप्रैल की तारीख तय की है।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

बिहार ने फिर दिखाई देश को राह

बिहार की नीतीश सरकार ने एक बार फिर स्वच्छ प्रशासन की दिशा में बड़ा कदम उटा कर पूरे देश के लिए मिसाल पेश कर दी है। राज्य सरकार ने 85,000 ऑफिसरों/कर्मियों की संपत्ति सार्वजनिक कर दी है। राज्य सामान्य प्रशासन विभाग के सूत्रों ने बताया कि राज्य के कुल 4।75 लाख कर्मचारियों में से 85,000 ऑफिसरों/कर्मचारियों की संपत्ति के विवरण इंटरनेट पर डाल दिए गए हैं। इनमें 190 आईएएस, 169 आईपीएस, 29 आईएफएस और 2800 प्रदेश प्रशासनिक सेवा के ऑफिसर शामिल हैं। सूत्रों के मुताबिक सभी 4।75 लाख कर्मचारियों की संपत्ति के विवरण सार्वजनिक करना बड़ा कठिन काम है, फिर भी विभाग युद्ध स्तर पर कार्य में जुटा हुआ है और उम्मीद की जा रही है कि इस महीने के अंत तक यह काम पूरा कर लिया जाएगा। सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव दीपक कुमार ने बताया, संपत्ति के विवरण देने संबंधी राज्य सरकार के निर्देश को काफी गंभीरता से लिया गया है और सिर्फ उन्हीं अधिकारियों की फरवरी महीने की सैलरी क्लिअर हुई जिन्होंने इस निर्देश के मुताबिक 28 फरवरी तक विवरण जमा कर दिए थे। जो अधिकारी अपनी संपत्ति का विवरण जमा नहीं करा सके उन्हें अपना रुख साफ करने के लिए एक और मौका दिया गया है।

हर दिन ‘विमेन्स डे’……

दुनिया भर में आठ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जाता है. लेकिन बॉलीवुड के कई सितारे मानते हैं कि हर दिन महिलाओं का दिन होता है. निर्देशक और कोरियोग्राफ़र फ़राह ख़ान इस मौके पर महिलाओं को बधाई देने की ज़रूरत नहीं महसूस करतीं. वो कहती हैं, “मुझे इस दिन किसी महिला को ‘ऑल द बेस्ट’ कहने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि ‘विमेन आर द बेस्ट ‘ (महिलाएं सर्वश्रेष्ठ होती ही हैं). हर महिला अपने-आप में एक क़ामयाब औरत होती है चाहे वो घर में रह कर अपने घर ही क्यों न संभाल रही हों क्योंकि वो भी एक बहुत बड़ी उप्लब्धि है. फ़राह मानती है कि हर दिन महिला दिवस होता है क्योंकि आप एक भी दिन महिलाओं के बिना नहीं गुज़ार सकते, चाहे वो आप ख़ुद हों, आपकी मां हो, या फिर आपके घर की सफ़ाई करने वाली या आपका खाना बनाने वाली बाई. इसी तरह प्रीति ज़िंटा भी कहती हैं, “महिला दिवस सिर्फ़ एक ही दिन क्यों मनाया जाए, हर दिन हमारा दिन होता है.” औरतों के साथ छेड़खानी या फिर हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रीति मानती हैं कि ऐसे पुलिस कंट्रोल रुम होने चाहिए जिनमें ज़्यादा महिला पुलिसकर्मी हों ताकि महिलाएं उनसे आसानी से बात कर सकें. इमरान ख़ान को भी एक ही दिन महिला दिवस मनाने का विचार समझ नहीं आता है. साढ़े आठ साल के रिश्ते के बाद हाल ही में शादी के बंधन में बंधे इमरान कहते हैं, “अपने अनुभव के आधार पर मैं तो यही कहूंगा कि हर दिन महिलाओं का दिन होता है. पुरुषों के लिए तो अभी तक कोई दिन ही नहीं बना.” सामाजिक मुद्दों से जुड़ी जानी-मानी अभिनेत्री शबाना आज़मी मानती हैं कि पिछले दिनों में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं जो बहुत परेशानी की बात है. उनका कहना है, “ज़रूरत इस बात की है कि हम अपनी औरतों की इज़्ज़त करें और उन्हें वो हक़ दें जो आज़ादी दे सकती है.” अभिषेक बच्चन कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों से बेहतर होती हैं और वो हमारे प्यार और सम्मान की हक़दार हैं. माधुरी दीक्षित का कहना है, “आज जब महिलाएं चांद पर भी पहुंच गई हैं तो यही कहूंगी कि आप कोई सपना देख सकते हैं और उसे साकार कर सकते हैं.” आमिर ख़ान को महिला सशक्तिकरण की बातें करना बेफ़कूफ़ी लगती है. वो कहते हैं, “इसमें कहने वाली बात क्या है, महिलाएं भी पुरुषों की ही तरह स्वतंत्र, मज़बूत और अपने-आप में संपूर्ण होती हैं. मैं सभी इंसानों की समानता में यक़ीन रखता हूं.” निर्दशक मेघना गुलज़ार की सोच इस बारे में थोड़ी अलग है. वो कहती हैं, “मैं महिला दिवस जैसे विचारों को नहीं मानती, मैं मानती हूं कि हर इंसान बराबर होता है. हमें किसी एक दिन की ज़रूरत नहीं है....हर इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर दिन जश्न मनाना चाहिए.”

गुरुवार, 10 मार्च 2011

अब भी डायन मानी जाती हैं महिलाएं


सोनभद्र के इस इलाके में पहले भी इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं.

महिला दिवस का मौक़ा हो या महिला सशक्तीकरण का कोई उत्सव.भारत में महिलाओं पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है. लेकिन इन्हें पूरी तरह ख़त्म करने में शायद दशकों लगें. उत्तरप्रदेश के सोनभद्र ज़िले में महिलाओं को डायन कहकर शारीरिक यातानाएं दिए जाने का एक मामला फिर सामने आया है. हैरत ये है कि प्रशासन इन महिलाओं के आरोपों को सामान्य क़रार दे रहा है और मामले को रफ़ा-दफ़ा करने में जुटा है. उत्तरप्रदेश के सोनभद्र ज़िले के जामपानी गांव में सात मार्च को दो महिलाओं को 'डायन' कहकर उनकी लाठी-डंडों से पिटाई की गई. पहवा और जासो देवी नामक इन महिलाओं का कहना है कि उन्हें डायन और भूत कहते हुए गांव के एक व्यक्ति और उसकी पत्नी ने न सिर्फ मारा बल्कि उनके ‘ज़ख्मों पर मिर्च भी लगाई’. जासो देवी ने बीबीसी को बताया, "हम अपने घर की ओर लौट रहे थे कि रास्ते में हमें पकड़ लिया और एक कमरे में ले गए. वहां हमें बहुत मारा, यहां तक कि हमारे हाथ-पैर नीले हो गए और हमारे ज़ख्मों पर मिर्च लगाई. फिर हमें कमरे में बंद कर दिया." अपनी आपबीती सुनाते हुए पहवा देवी ने कहा, "जब वो हमें मार रहे थे तब हमें बचाने के लिए कोई नहीं आया. लोग खड़े होकर तमाशा देख रहे थे लेकिन बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया." इस इलाक़े में महिलाओं के अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्था वनवासी सेवा आश्रम से जुड़ी शोभा देवी ने बीबीसी को बताया, "यहां एक शिवगुरु चर्चा चलती है जिसमें लोग पूछते हैं कि किसी बीमारी की वजह क्या है". "उसमें एक युगल को बताया गया कि उनके घर के दक्षिण में जो रहता है उसने उनके बच्चे पर जादू-टोना कर दिया है. इसके बाद वो इन महिलाओं को पकड़ कर ले गए और उन्हें मारा." इस मामले की सूचना पाकर मौक़े पर पहुंचे एक स्थानीय वकील सूर्यमणि यादव ने बताया, "मैंने देखा कि कुछ लोगों ने इन औरतों को घेरकर बंधक बना रखा है. उन्हें काफ़ी चोटें आई थीं. "मार-पिटाई करने वालों का आरोप था कि इन औरतों ने उनके बच्चे पर जादू-टोना कर दिया है. हमने उन्हें समझाया और अंधविश्वास के लिए फटकार लगाई. फिर महिलाओं को अस्पताल ले जाया गया". इलाक़े के पुलिस अधीक्षक दीपक कुमार ने बीबीसी को बताया कि महिलाओं की शिकायत पर एक व्यक्ति को हिरासत में ले लिया गया है और उसके ख़िलाफ़ धारा 323, 504 और 506 के तहत मामला दर्ज किया गया है. हालांकि पुलिस अधीक्षक का कहना है कि यह एक समान्य मामला है और आदिवासी बहुल इस इलाके में महिलाओं को डायन कहा जाना आम है. उन्होंने कहा, "ये गोंड आदिवासियों का इलाक़ा है. यहां प्रचलित सामाजिक कुरीतियों के तहत महिलाओं पर अक्सर इस तरह के आरोप लगाए जाते हैं". "ये एक सामान्य मारपीट का मामला है. बाक़ी की कार्रवाई हम कोर्ट के आदेश से करेंगे." ऐसे में इन महिलाओं की मदद को पहुंची शोभा देवी का कहना है कि पुलिस की गंभीरता इस बात से ही ज़ाहिर होती है कि इलाक़े के थाना इंजार्च ने घटनास्थल का मुआएना तक नहीं किया है और मौक़े पर पहुंचे दो सिपाहियों के हवाले से मामला दर्ज किया गया है. उन्होंने बताया कि इस इलाक़े में पहले भी इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं और पुलिस को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए. उन्होंने कहा, "पुलिस ने एफआईआर में सिर्फ मारपीट का मामला दर्ज किया है. ये महिलाएं तो खुद लिख नहीं सकतीं लेकिन उन्होने पुलिस को साफ़तौर पर बताया है कि उन्हें बुरी तरह पीटा गया है और उनके ज़ख्मों पर मिर्चें आ दि लगाई गईं."

मुझे ‘मुन्नी बदनाम हुई’ प्यारा लगा: माधुरी

माधुरी दीक्षित को फ़िल्म ‘दबंग’ का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ प्यारा लगा|

अस्सी और नब्बे के दशक की हिंदी फ़िल्मों की जानी-मानी अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को फ़िल्म ‘दबंग’ का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ प्यारा लगा.पिछले कुछ समय से बॉलीवुड के दो गाने-मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी-काफ़ी चर्चा में हैं. कुछ लोगों को ये गाने बहुत पसंद आ रहे हैं जबकि कुछ को नहीं. लेकिन बॉलीवुड की सबसे सफल अभिनेत्रियों में से एक और अपने उम्दा नृत्य के लिए मशहूर माधुरी कहती हैं कि उन्हें ये गाना ‘क्यूट’ लगा. “मैंने तीसमार ख़ाँ नहीं देखी है इसलिए ‘शीला की जवानी’ नहीं देख पाई, लेकिन ‘दबंग’ देखी है. हर किसी का देखने का नज़रिया और कोरियोग्राफ़ी करने का तरीका अलग-अलग होता है. मैं इस बारे में टिप्पणी नहीं कर सकती. हां, मुझे ‘मुन्नी’ अश्लील नहीं लगा. मुझे तो गाना बहुत प्यारा लगा.” माधुरी को फ़िल्म भी काफ़ी मनोरंजक फ़िल्म लगी. वो कहती हैं, “ये सीटी-वीटी बजाने वाली फ़िल्म है. सलमान ख़ान ने बहुत अच्छा काम किया है. मुझे अपनी फ़िल्म ‘राजा’ याद आ गई जो इसी तरह की थी.” माधुरी दीक्षित की गिनती हिंदी सिनेमा की बेहतरीन अदाकारों और डांसर्स में होती है. ये पूछे जाने पर कि अपने नृत्य के लिए उन्हें सबसे बढ़िया ‘कॉम्पलिमेंट’ क्या मिला, उन्होंने बताया, “जब मैंने फ़िल्म ‘बेटा’ का गाना ‘धक-धक’ किया था, तो वहां मेरे कुछ दोस्त भी मौजूद थे. गाने के बाद मेरी एक दोस्त ने कहा कि तुमने कितना अच्छा डांस किया है. किसी ने कहा कि अनिल जी ने भी कितना अच्छा डांस किया है, तो उस दोस्त ने कहा कि, अरे अनिल जी भी थे क्या गाने में....”1984 में राजश्री की फ़िल्म ‘अबोध’ से अपना फ़िल्मी सफर शुरु करने वाली माधुरी एक मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रियन परिवार से हैं. इसलिए वो कहती हैं कि फ़िल्मों में आने का फ़ैसला उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. लेकिन वो मानती हैं कि जो व्यक्ति की किस्मत में होता है, उसके लिए रास्ते अपने आप निकल आते हैं. माधुरी ने बताया, “जब ‘अबोध’ की थी तब मैं फ़िल्मों के प्रति बहुत गंभीर नहीं थी. सोचा था कि एक फ़िल्म कर लेंगे क्योंकि मुझे पढ़ाई भी करनी थी, मैं साइंस की छात्रा थी. लेकिन जब शूटिंग करनी शुरु की तो मुझे बहुत अच्छा लगा. फिर एक के बाद एक फ़िल्में मिलती गई.” कुछ साल पहले शादी कर अमरीका में बस गईं माधुरी दीक्षित इन दिनों एक डांस रियेल्टी शो को जज कर रही हैं और इस सिलसिले में वो भारत में हैं.

झलक दिखला जा

माधुरी दीक्षित इन दिनों डांस रियेल्टी शो 'झलक दिखला जा' जज कर रही हैं.

करियर के शीर्ष पर होने के बावजूद शादी करने का फ़ैसला करने में माधुरी को कोई दिक्कत नहीं हुई.उन्होंने कहा, “ मुझे कभी ये ख़्याल नहीं आया कि मैं नम्बर वन हूं या करियर छोड़ रही हूं. हर इंसान का अपना सपना होता है कि आपको क्या-क्या चाहिए. मेरे लिए अभिनय व्यवसाय था और मेरे लिए यही ज़रूरी था कि मैं अपना काम अच्छी तरह से करूं. दूसरा, क्योंकि मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूं इसलिए मुझे भी अपने लिए ऐसा ही परिवार, घर, पति और बच्चे चाहिए थे. ये मेरा अपने लिए सपना था और जब मुझे सही व्यक्ति मिल गया, तो फिर फ़ैसला लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई.” अपने करियर में साठ से भी ज़्यादा फ़िल्में करने वाली माधुरी दीक्षित ने रोमांटिक, कॉमेडी और गंभीर, सभी तरह की फ़िल्में की हैं. उनकी आखिरी फ़िल्म 2007 में आई ‘आजा नचले’ थी. लेकिन वो चाहती हैं कि अगर अब वो ऐक्टिंग करें तो रोल उनकी छवि के अनुरुप हो. माधुरी कहती हैं, “अगर आज मैं फ़िल्म करूं तो ये कई बातों पर निर्भर करेगा. जो भी रोल हो वो मेरी छवि के अनुरुप हो और मेरे लिए लिखा गया हो. ज़ाहिर है वो छोटी उम्र का, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला रोल तो नहीं हो सकता लेकिन मैं हर समय गंभीर किस्म की फ़िल्में भी नहीं करना चाहती. चाहे वो गंभीर फ़िल्म हो या कॉमेडी, रोल ऐसा होना चाहिए जो मेरे लिए सही हो.”

मैंने ‘शीला की जवानी’ नहीं देखा है, लेकिन ‘दबंग’ देखी है. हर किसी का देखने का नज़रिया और कोरियोग्राफ़ी करने का तरीका अलग-अलग होता है. मैं इस बारे में टिप्पणी नहीं कर सकती. हां, मुझे ‘मुन्नी’ अश्लील नहीं लगा. मुझे तो गाना बहुत प्यारा लगा.

माधुरी दीक्षित

पैरंट्स ने बच्चों के लिए की मर्सी किलिंग की मांग

दुनिया में माताएं अपने बच्चों के लिए लंबी उम्र की दुआ मांगती हैं, लेकिन बिहार की आशा देवी के साथ ऐसा नहीं है। आशा के दो बेटे नितिन (15) और अंशु (11) मस्क्युलर डिस्ट्रफी नाम की दुर्लभ बीमारी से पीड़ित हैं। दोनों बात नहीं कर सकते हैं और अपने पैरों पर नहीं चल सकते। वे छाती से नीचे लकवे का शिकार हैं। आशा कहती हैं कि यह नियति की क्रूरता ही है कि मैं अपने दोनों बच्चों के लिए मौत मांग रही हूं। नितिन और अंशु के पिता ने सरकार से उनके लिए दयामृत्यु की मांग की है। मस्क्युलर डिस्ट्रफी में मसल सेल्स और टिशू की डेथ के कारण मांसपेशियां खराब हो जाती हैं। इससे पीड़ित शख्स कंकाल का ढांचा बनकर रह जाता है। रीढ़ टेढ़ी हो जाती है और सांस लेना मुश्किल होने लगता है। आशा ने कहा कि दोनों बच्चे जब पैदा हुए तो स्वस्थ थे, लेकिन जब वे दो साल के हुए तो धीरे-धीरे उनकी हालत बिगड़ने लगी। मस्क्युलर डिस्ट्रफी ठीक होने वाली बीमारी नहीं है। इसके इलाज की दिशा में कुछ तरक्की हुई है, लेकिन यह इलाज सिर्फ अमेरिका में उपलब्ध है और इस पर 30 लाख रुपये से ज्यादा खर्च आता है। दोनों लड़कों के पिता बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में रतवादा गांव के गरीब किसान मुकेश कुमार इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उन्होंने कहा कि मैंने राज्य सरकार से दोनों बच्चों के दयामृत्यु की इजाजत देने की मांग की है। दोनों बच्चों के माता-पिता का कहना कि सरकार या तो उनके इलाज का इंतजाम करे या उनके लिए दयामृत्यु की इजाजत दे|

बिहार की चर्चा अब विकास के लिए होती है: चेतन भगत

मशहूर लेखक चेतन भगत ने कहा है कि बिहार बदल रहा है और कुछ समय पहले तक पिछड़ेपन के लिए चर्चाओं में रहने वाले बिहार की चर्चा अब विकास के लिए होती है। पटना के दौरे पर आए चेतन भगत ने मंगलवार को पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा कि बिहार में तेजी से बदलाव हो रहा है। अब इस राज्य की चर्चा पिछड़ेपन के लिए नहीं बल्कि विकास के लिए की जाती है। उन्होंने कहा कि अगर बिहार के लोग जागरूक होंगे तो तय है कि देश की तस्वीर बदल जाएगी। आज पूरे देश में बिहार की चर्चा है। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भी प्रशंसा करते हुए कहा कि वे बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। बिहार के निवासियों के प्रति लोगों की सोच बदली है। उन्होंने बिहारी लोगों की प्रशंसा करते हुए कहा कि वह काफी मेहनती होते हैं। आज यहां के लोग विकास की बात भी करते हैं। उन्होंने युवाओं को सलाह देते हुए कहा कि यहां के युवा अपना रोल मॉडल चुनें। भगत कहते हैं कि आम आदमी में बदलाव दिख रहा है। उन्होंने कहा कि जब आम आदमी जिम्मेदार बनेगा तो बड़े बदलाव भी सामने आएंगे। उन्होंने कहा कि वह बिहार आकर बहुत खुश हैं। भगत पटना ऑरकेड बिज़नस कॉलेज (एबीसी) में लेक्चर देने के लिए पटना आए हैं।

मुन्नी और शीला ... खतरे में लड़कियां !


मुन्नी बदनाम हुई व माई नेम इज शीला.. शीला की जवानी ... इन गानों ने चारो ओर धूम मचा राखी है , लेकिन इसके चलते मुन्नी ओर शीला नाम की लड़कियों का जीवन खतरे में हैं. लोगों की जुबान पर यह गाना इस कदर चढ़ चुका है कि लड़कियां रोज छेड़छाड़ कि शिकार हो रहें हैं. मनचले गानों के जरिये उन्हें छेड़ रहे हैं, मनोचिकित्सकों का मानना है कि इससे लास्कियाँ डिप्रेशन में जी रही है, लिहाजा बे गलत कदम उठाने पर मजबूर हो जाती हैं.
छत्तीसगढ़ रायपुर के तेलीबांधा कि एक छात्रा ने छेड़छाड़ से तंग आकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली . मौत का कारण लगातार छात्रा कि भावनाओं के साथ कि जा रही खिलवाड़ है . दरअसल कुछ दिनों पहले एक दसवीं कक्षा कि छात्रा नेहा ने क्लास के ही दो मनचले लड़कों कि छेड़खानी से तंग आकर अपने घर पर ही मिटटी के तेल से खुद को जला लिया बाद में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई. मनोचिकित्सक मानते हैं कि किशोरावस्था में लड़कियों का भावनात्मक विकास हो रहा होता है , लिहाजा इस अवस्था में खुद पर काबू रख पाना मुमकिन नहीं होता . जो दिल से मजबूत हैं उनके साथ दिक्कत कम है लेकिन जो जो भावुक है वह गलत कदम उठा लेती हैं. फ़िल्मी गानों में लगातार लड़कियों के नामों का इस्तेमाल ओर गानों में फूहड़ता ने किशोरों कि मानसिकता बदल दी है. ये गाने इनकी जेहन में इस कदर घर कर जाते हैं कि इन्हें हर लड़की में गाने कि अभिनेत्री ही नज़र आने लगती है. इसके चलते स्कूल कॉलेज ओर आम रस्ते पर छेड़छाड़ आम हो गई है. पब्लिक प्लेस पर गाना गाकर लड़कियों को परेशान किया जा रहा है. कभी शिकायत होती भी है तो उस पर ध्यान नहीं दिया जाता .
लगातार हो रही छेड़खानी के चलते लड़कियां डिप्रेशन में जीने लगी हैं. हालत यहाँ तक पहुँचने लगे हैं कि शिकार युवतियां स्कूल जाने से घबराने लगी हैं , ऐसे मरीजों कि संख्या इन दिनों डॉक्टरों के पास भी बढ़ने लगी है. कई बार स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि लड़कियां घर से बाहर कदम निकलने में हिचकिचाती हैं, अमूमन बाकि अवस्था के मुकाबले किशोर वास्ता बेहद संवेदनशील होता है, इस दौरान लड़कियां कूद के व्यक्तित्व को तलाश रही होती है ओर ऐसे वाकये हो जाने पर इसे धक्का लगता है ऐसे में गलत कदम उठाने पर मजबूर हो जाती है,.
अब सवाल ये उठता है कि हम अपने समाज में ऐसे मौत का सामान रूपी गानों को किस तरह पचा पाते है, जिनमे किसी कि भावनाएं तो आहत हो ही रही है साथ ही युवाओं के चरित्र का हनन भी हो रहा है.

सोमवार, 7 मार्च 2011

दहेज़ मुक्त मिथिलाक उद्येश....


दहेज़ मुक्त मिथिलाक उद्येश,.....

किछु दिन पहिने जितमोहन जी के एकता पोस्ट वोइस ऑफ़ मिथिला पैर आयल, जे आई प्रकार सँ छल:-

आय हम मैथिल बंधूक माध्यमसँ ई जानैक इच्छुक छी जे..

मिथिलाक नाम पर बहुत आन्दोलन चैल रहल अछि!

मुदा की मिथिला में दहेज़ प्रथाक लेल कुनू आन्दोलन चलत ?? यो मैथिल बंधूगन कहिया ई दहेजक महा जालसँ मिथिला मुक्त हेत... ??


अई विषय पर बहुत रास प्रतिक्रिया आयल, किछु उत्साहित किछु, किछु व्यंगात्मक, किछु प्रश्नवाचक,

किछु नवयुवक एहन छाला जे आपन जीवन में बहुत नीक मुकाम पर छैथ ऑओ अपन जीवन के निर्णय

अपने लेवा में पूर्ण सक्षम छैथ, जखन ओ सब आई विषय के समर्थन केला की मिथिला के दहेज़

मुक्त कायल जाय, तखन त छाती ३६ इंची भा गेल, मुदा अई विषय में एक त मुख्य गप जे सामने आयल ओ

इ की जे कियो बिना दहेज़ के विवाह करता से कनिया मनपसंद करता, बात त बब्बू बर सार्थक थीक, आ

होबाको सहे चाही, ताई पर हमरा लोकिन ई ब्लॉग के निर्माण केना छि, हमरा सब के आशा जे अई मुहीम में

अधिकाधिक नवयुवक आ हुनक माता-पिता जुरैथ आ अई दहेज़ रूपी कलंक के धोबा में सहयोग करी.

हम आपने लोकिन स ईहो आग्रह करब जे "दहेज़ मुक्त मिथिला" विषय पर अपन अपन विचार अवश्य
लिखी.

हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

भोरे सूती उठी देखलो
आँखी सं अपन नोर पोछैत ,
माए पुछलक कियाक कनैत छी ?
की देखलो स्वप्न में कुनू दोस ?
बेटी आँखिक नोर पोछैत --की माए
हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

जतय सीता जन्मली मैट सं
ओहो एकटा नारी भेली ,
जिनका रचायल वियाह स्वम्बर
हमहूँ ओहिना एगो नारी भेलौ
बेटी आँखिक नोर पोछैत --की माए
हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

आय देखैत छीक घर - घर में
दहेजक कारन कतेक घरसे बहार ,
उमर वियाहक बितैत अछि हमरो --
की करू हमहूँ अपन उपचार ?
बेटी आँखिक नोर पोछैत --की माए
हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

धिया - पुत्ता में कनियाँ - पुतरा संग
अपन जिनगी के केलो बेकार ,
बाबु - काका लगनक आश में
सालक - साल लागोलैन जोगार ,
बेटी आँखिक नोर पोछैत --की माए
हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

वियाह देखलो संगी - सहेली क
नयन जुरयल मन में आस भेटल ,
बट सावित्री मधुश्रवणी पूजितो
सेहो आई सपनोहूँ से छुटल
बेटी आँखिक नोर पोछैत --की माए
हमहूँ मिथिला के बेटी थिकाऊ ?

लेखिका -
सोनी कुमारी (नॉएडा )
पट्टीटोल , भैरव स्थान ,
झंझारपुर , मधुबनी , बिहार