रविवार, 23 जनवरी 2011

आग का दरिया है, नंगे पांव चलना है


पटना .एक आग का दरिया है। उसपर कुछ लोग नंगे पांव चल रहे हैं। चलने वालों में कमसिन बच्चे भी हैं। उनकी पेशानी पर न कोई शिकन है और न चेहरे पर दर्द का एहसास। होठों से चीख या उफ भी नहीं निकलती। पास खड़े जायरीनों को शोलों की तपिश महसूस होती है। मगर चलने वालों का जज्बा ऐसा कि जैसे उन्हें कुछ हुआ ही न हो। यह सारा मंजर है पटना सिटी के नौजरकटरा इमाम वारगाह के करीब अंजुमने-पंजतनी के जेरे-एहतमाम शोला मातम का। जाड़े की सर्द रात का भी देर तक जगाये रखा मातम करने वालों ने। हजरत इमाम हुसैन हक व सदाकत (सच्चाई) के लिए अपनी आंखों के सामने अहलो-अयाल को कुर्बान करना गवारा कर लिया लेकिन एक फासिक व फाजिर की बैत कबूल न की। उन्होंने अपने जांनिसारों के साथ हक व वातिल की राह में दीने-इस्लाम को बचाने के लिए मैदाने- कबर्ला में अपनी शहादत दी। शहादत की याद ताजा करने के लिए हर साल अजादाराने-हुसैन गम मनाते हैं। इसी सिलसिले में अंजुमन-ए-पंजतनी के जानिव इस शोला मातम का एनाकाद किया जाता है। तकरीबन एक दर्जन से भी ज्यादा लोगों ने इस आतशी मातम को अंजाम दिया। एक दर्जन से भी ज्यादा लोगों ने इस आतशी मातम को अंजाम दिया। एक-एक कर और कई-कई बार यह सिलसिला देर तक बदस्तूर चलता रहा। तमाम जायरीनों के साथ नकाबपोश ख्बातीनें अश्कवार और जार-जार रो रही थीं। देर तक चीखने, रोने और सिसकियों की आवाजें रात के सन्नाटे में फिजां में तैर रही थी। इसके पहले शहर की तमाम अंजमुनों ने नौहे पढ़े। कातर आवाजों में पढ़े गये नौहे लोगों को और भी गमजदा कर रहे थे। नौहा पढ़ने वाली अंजमुनों में अंजुमने-पंजतनी, अंजुमने-सज्जादिया, दस्त-ए- सज्जादिया, अंजुमने-हैदरी, अंजुमने-अब्बासिया, अंजुमने-हुसैनिया, अंजुमने-काशमियां सहित दीगर अंजुमनों की हिस्सेदारी थी। शोला मातम के दरम्यान इमाम हुसैन आली मुकाम की कुर्बानियां याद कर मातम मनने वालों की कसीर तादाद में शिरकत थी। बच्चे, बूढ़े और मदरे के अलावा बड़ी तादाद में औरतों ने भी हजरत इमाम हुसैन को अपने अश्कों से खिराज-ए-अकीदत पेश किया। शोला मातम के मौके पर मौलाना दिलदार खुम्मी ने जायरीनों को खिताब करते हुए फरमाया कि मैदाने-कबर्ला उस अजीम और बेमिसाल वाकए की यादगार है जिसमें इस्लाम की हिफाजत को जिन्दा और जाबदां रखने के लिए अपनी हस्ती को फना करने वाले हजरत इमाम हुसैन ने अपने साथियों और खानदान के साथ शहादत दी। हजरत हुसैन ने दीन की बुनियादी कद्रों और इंसानी जिंदगी के लिए रब्बानी तरीके जहद व अमल की हिफाजत और सच्चाई का इजहार फरमाने के लिए मैदाने-कबर्ला में जलबा अफरोज हुए। अपना और अपनी औलाद का खून देकर हक व सदाकत का वह सफ्हा रकम किया जिसकी कोई मिसाल न माजी में है और न मुस्तकबिल में मुमकिन होगी। न पेशानी पर शिकन न चेहरे पर दर्द

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