रविवार, 1 जनवरी 2012

जज्बों से मिली नई पहचान

कुछ लोग महान लक्ष्यों को हासिल करने का मकसद लेकर जिंदगी जीते हैं लेकिन ट्विनसिटी की पदमा शषांक दबडग़ाव एक ऐसी महिला शख्सियत हैं जो जिंदगी को सादगी और सहजता से जी कर उपलब्धियां पाने में यकीन रखती हैं। पदमा के इस जज्बे ने उन्हें 21 साल की उम्र में ही भिलाई इस्पात संयंत्र में पहली महिला ग्रेजुएट इंजीनियर बनने का अवसर मिल गया और उन्होंने वर्तमान समय के लिए इतिहास रच दिया। संयंत्र के बीईडीबी विभाग की स्थापना से लेकर अब तक के सफरनामे में उनका अहम योगदान रहा है। साथ ही भिलाई की कार्यसंस्कृति को भी अपने 37 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने नजदीक से जाना और परखा है। सेवानिवृति के बाद ने रविवार को पदमा से शेखर झा की खास बातचीत किया।
पदमा रविशंकर की टॉप स्टूडेंट - पदमा शषांक दबडग़ाव का जन्म नागपुर में हुआ। वह बचपन से ही पढ़ाई लिखाई में तेज थी। पिता जी का जबलपुर में नौकरी होने के कारण प्रारंभिक शिक्षा वहीं से पूरी की। पिता जी के प्रोफेसर होने के चलते घर में हर समय पढ़ाई-लिखाई का अच्छा माहौल रहता था। हायर सेकेंडरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने रीवा कॉलेज में इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में एडमिशन कराया। कुछ दिनों बाद पिताजी का ट्रांसफर बिलासपुर होने की वजह से पूरी फैमिली को बिलासपुर आना पड़ा। सन् 1972 में बिलासपुर कॉलेज के इंजीनियरिंग में टॉपर स्टूडेंट्स रह चुकी हैं।
पिताजी ने बढ़ाया हौसला - पदमा ने कहा कि मैं इस मामले में खुशनसीब हूंं क्योंकि मुझे शुरू से ही पढऩे-लिखने का अच्छा माहौल मिला गया था। मेरे इंजीनियरिंग में एडमिशन कराने के बाद कॉलोनी की ओर भी लड़कियां पढ़ाई करनी शुरू कर दी। मैंने जब इंजीनियरिंग में एडमिशन कराया था तो लोग कई तरह की बात करते देखने को मिल रहे थे, लेकिन उस सफर में मेरे पिताजी ने मेरा खुब साथ दिया। क्योंकि वह भी एक खुद भी इंजीनियर थे।
कॉलेज का पहला दिन रहा यादगार - मैं अपने समय की बात करूं तो वर्तमान समय के स्टूडेंट्स जैसी सोच नहीं हुआ करती थी। मैं अपने क्लास में अकेली लड़की थी। उस दौरान मुझे कई सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था जो मैं व्यां नहीं कर सकती हूं। उन्होंने कहा कि जो भी अच्छा ही हुआ। आज भी मुझे अपने कॉलेज का पहला दिन याद है।
घर और ससूराल वालों ने किया सपोर्ट -
घर की तरह ससुराल ने भी मुझे इस मामले में काफी सहयोग किया। मेरे पति भिलाई इस्पात संयंत्र में ही इंजीनियर थे। उन्होंने ही वेकैंसी निकलने पर अप्लाई करने के लिए प्रोत्साहित किया। लिखित परीक्षा का बुलावा पत्र जब आया तब मैं अस्पताल में थी। दरअसल मैंने चार दिन पहले ही एक बेटी को जन्म दिया था। मैंने पूछा कैसे हो पाएगा, तो वह बोले फिक मत करो सब हो जाएगा। पापा ने भी मेरी हिम्मत बढ़ाई। लिखित परीक्षा के कुछ दिनों बाद मुझे इंटरव्यू के लिए कॉल आ गया और मेरे इंटरव्यू हुआ। 27 जून, 1974 को मैंने ग्रेजुएट इंजीनियर के रूप में भिलाई इस्पात संयंत्र में पहली इंजीनियर के रूप में ज्वॉइन किया।
सुनकर लगता है अच्छा - ट्विनसिटी के लोग जब हमें भिलाई संयंत्र की पहली महिला इंजीनियर कहते हैं तब सुनकर मुझे काफी अच्छा लगता है। वहीं जिनको शक होता था महिलाएं कुछ नहीं कर सकती है उन लोगों को मैंने जवाब दिया। पदमा ने कहा कि एक बार मन में ठन लेने के बाद इंसान सभी काम को आसानी से कर लेता है। मुझे कुछ अलग करके नही दिखाना था इसलिए लोग बारीकी से आब्जर्व करते हैं कि हम कैसा काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैं खुद अपनी आंखों से उस जगह को देखना चाहती हूं, जहां मैं काम करती हूं। मैं भला किसी दूसरे की आंखों से उस जगह को क्यों देखूं?
आज भी साद है वो दिन - मुझे याद है 90 के दशक में वायर रॉड मिल का पहला रॉड रात एक बजे चढ़ा था और मैं उसे देखने के लिए अपनी टीम के साथ रूकी रही। ट्रायल चल रही थी। लोग खुशी से चिल्ला रहे थे कभी न भूलने वाले उस पल को भला सिर्फ इसलिए कि हम महिला हैं, कैसे मिस कर सकते थे। अब लोगों को संयंत्र में महिलाओं का काम करना अजूबा नही लगता। हमने खुद को साबित किया।
अपने आप में रखें विश्वास - वतर्मान समय में महिलाएं पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। जहां कुछ साले पहले पुरुष अधिकारी हुआ करते थे वहां अब महिलाएं भी पहुंच चुकी हैं। वर्तमान समय की लड़कियों को अपने आप पर विश्वास करना होगा, तभी जाकर अपने मुकाम को हासिल कर पाएंगी। उन्होंने कहा कि हर इंसान को सीखने की आदत कभी नहीं छोडऩी चाहिए। अपना दायरा लगातार बढ़ाते रहें और यह न भूलें कि टीम वर्क सबसे महत्वपूर्ण है।

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