वह 23 जनवरी 1944 का दिन था, जब आजाद हिंद फ़ौज की एक टुकड़ी ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया। इस टुकड़ी के नायक ने भारतीय सीमा में घुसने के साथ ही आजाद हिंद फ़ौज का तिरंगा फ़हराया था। बाद में लड़ाई के दौरान वह नायक और उसकी दल के सभी सदस्य अंग्रेज सैनिकों द्वारा गिरफ़्तार कर लिये गये। दल के उस नायक को फ़ांसी की सजा सुना दी गई। लेकिन इससे पहले कि उन्हें फ़ांसी दी जाती, भारत आजाद हो गया और उन्हें रिहा कर दिया गया।
देश के लिये अपनी जान तक न्यौच्छावर करने वाले कर्नल महमूद अहमद आज दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने जो सपना देखा था, वह आज भी उनकी पत्नी जीनत महमूद अहमद की आंखों में सजीव है। “अपना बिहार” के साथ विशेष बातचीत में श्रीमती अहमद ने बताया कि उनकी अपनी पैदाइश जम्मू में हुई थी। उनके पिता वजाहत हुसैन अपने समय में बिहार के गिने-चुने आईसीएस यानी इन्डियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे। वे जम्मू कश्मीर में कार्यरत थे। बाद में उनका स्थानांतरण यूपी में कर दिया गया। वर्ष 1935 में आजादी के दीवानों ने गोरखपुर में विशाल जनसभा का आयोजन किया था। अंग्रेजी हुकूमत ने वजाहत हुसैन को जनसभा में गोली चलवाने का हुक्म दे दिया। इससे इन्कार करते हुए उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी त्याग दी। बाद में वे भारतीय रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर सी वी देशमुख ने उन्हें डिप्टी गवर्नर बना दिया और इस प्रकार उनका परिवार बंबई चला गया।हम जिनकी बात कर रहे हैं, वह थे कर्नल महबूब अहमद। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सबसे निकट रहने वाले कर्नल अहमद बिहार के वैशाली जिले के दाऊदनगर के रहनेवाले थे। आजाद हिंद फ़ौज में शामिल होने से पहले वे ब्रिटिश सेना में कर्नल थे। जब नेताजी ने भारतीय सैनिकों को देश सेवा में आगे आने का आहवान किया तो कर्नल अहमद ने आगे बढकर ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़ दी और नेताजी के साथ हो गये। श्रीमती अहमद ने बताया कि उनकी मां सईदा भारत के अंतिम हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान से था। ऐसा इसलिये कि पृथ्वीराज चौहान के खानदान के लोगों ने बाद में इस्लाम कबूल कर दिया था और पंजाब के बटाला में रहने लगे थे। कर्नल महबूब अहमद के साथ शादी के संबंध में पूछे गये सवाल पर श्रीमती अहमद ने बताया कि उस समय वे दिल्ली के मिरांडा हाऊस में एमए की प्रथम वर्ष की छात्रा थीं। शादी के समय उनकी उम्र 22 वर्ष और कर्नल अहमद की उम्र 37 वर्ष थी। कर्नल महबूब उस समय देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के अत्यंत करीब थे और उनके कहने पर ही उन्होंने भारतीय विदेश सेवा की नौकरी स्वीकार की।
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